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________________ महानिशीथ-८/२/१४९८ १०५ हूँ कि इस तरह का राग उत्पन्न होने के यंत्र समान, पुद्गल समूहवाले मेरे देह को देखकर तीतली की तरह कामदीपक में छलांग लगाता है । अब मैं जी कर क्या करू ? अब मैं जल्द इस पाप शरीर को वोसीराऊँ । इसके लिए काफी दुष्कर प्रायश्चित् करूँगा । समग्र संग का त्याग करने के समान समग्र पाप का विनाश करनेवाले अणगार धर्म को अंगीकार करूँगा । कईं पूर्वभव में इकट्ठे हुए दुःख से करके छोड़ शके ऐसे पाप बँधन के समूह को शिथिल करूँगा, ऐसे अव्यवस्थित जीवलोक को धिक्कार है कि जिसमें इन्द्रिय का वर्ग इस तरह पराधीन होता है । अहो कैसी शरीरसीबी है कि लोक परलोक के नुकशान की ओर नजर नहीं उठाता । एक जन्म के लिए चित्त का दुराग्रह कैसा हुआ है ? कार्याकार्य की अज्ञानता, मर्यादा, रहितपन तेजरहितपन, लज्जा का भी जिसने त्याग किया है । मुझे इस हालात में पलभर भी देर लगाना उचित नहीं है । दुःख से करके रोका जाए ऐसे तत्काल पाप का आगमन होता हो ऐसे स्थान में रहना जोखिम है । हा हा हा हे निर्लज्ज शत्रु ! अधन्य ऐसी आँठ कर्मराशि इस राज बालिका को आज उदय में आए है । यह मेरे कोठार समान पाप शरीर का रूप देखने से उसके नेत्र में राग की अभिलाषा हुई । अब इस देश का त्याग करके प्रवज्या अंगीकार करूँ । ऐसा सोचकर कुमारवरने कहा कि मैं शल्य रहित होकर आप सबकी क्षमा चाहता हूँ । और मेरा किसी अनजाने में भी अपराध हुआ हो तो हरकोई क्षमा , त्रिविध-त्रिविध से त्रिकरण शुद्ध से मैं सभा मंडप में रहे राजकुल और नगरजन आदि सब की क्षमा माँगता हूँ । ऐसा कहकर बाहर नीकल गया । - अपने निवासस्थान पर पहुँच गया । वहाँ से रास्ते में खाने का पाथेय ग्रहण किया । झाँक के ढ़ंग के तरंग समान सुकुमाल श्वेत वस्त्र के दो खंड़ करके पहना । सज्जन के हृदय समान सरल नेतर लता की सोटी और अर्धढ़ाल बाँये हाथ में ग्रहण की उसके बाद तीनों भुवन के अद्वितीय गुरु ऐसे अरिहंत भगवंत संसार में सबसे श्रेष्ठ धर्म तीर्थंकर की यथोक्त विधि से संस्तवना, वंदना, स्तुति, नमस्कार करके चलते रहे । ऐसे चलते कुमार काफी दूर देशान्तर में पहुँचे कि जहाँ हिरण्णक्करूड़ी राजधानी थी । वहां विशिष्ट गुणवाले धर्माचार्य के आने के समाचार पाने के लिए कुमार खोज करता था और सोचता था कि जब तक विशिष्ट गुणवाले धर्माचार्य का योग न बने तब तक मैं यही रूकु । ऐसे कुछ दिन बीते । कइ देशमें फैलनेवाली कीर्तिवाले वहाँ के राजा की सेवा करूँ ऐसा मन में मंत्रणा करके राजा को मिला । योग्य निवंदन किया । राजाने सन्मान किया । सेवा पाइ । किसी समय प्राप्त हुए अवसर से उस कुमार को राजाने पूछा कि - हे महानुभाव ! महासत्त्वशालीन् ! यह तुम्हारे हाथ में किसके नाम से अलंकृत मुद्रारत्न सुशोभित है ? इतने अरसे तक तुने कौन-से राजा की सेवा की थी ? या तो तुम्हारे स्वामीने तुम्हारा अनादर किस तरह किया ? कुमारने राजा को प्रत्युत्तर दिया कि जिसके नाम से अलंकृत यह मुद्रारत्न है उसकी मैंने इस अरसे तक सेवा की । उसके बाद राजाने पूछा कि - उसे किस शब्द से बुलाया जाता है ? कुमारने कहा कि • भोजन किए बिना मैं वो चक्षुकुशील अधम का नाम नहीं लूँगा । तब राजाने पूछा कि, अरे महासत्त्वशालिन् ! वो चक्षुकुशील ऐसे शब्द से क्यों बुलाए जाते है ? और खाए बिना उसका नाम न लेने की क्या वजह है ? कुमारने कहा कि चक्षुकुशील ऐसा नाम शब्दपूर्वक बोलूँगा नहीं किसी दुसरे स्थान में कभी तुम्हें प्रत्यक्ष पता
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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