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________________ महानिशीथ-८/२/१४८४ १०१ यह मार्ग है । यह साधुधर्म स्वाद रहित मिट्टी के नीवाले का भक्षण करने के समान है । काफी तीक्ष्ण पानीदार भयानक तलवार की धार पर चलने के समान संयम धर्म है । घी आदि से अच्छी तरह से सींचन किए गए अग्नि की ज्वाला श्रेणी का पान करने के समान चारित्र धर्म है । सूक्ष्म पवन से बँटवा भरने के जैसा कठिन संयम धर्म है । गंगा के प्रवाह के सामने गमन करना, साहस के तराजु से मेरु पर्वत नापना, एकाकी मानव धीरता से दुर्जय चातुरंग सेना को जीतना, आपसी उल्टी दिशा में भ्रमण करते आँठ चन्द्र के ऊपर रही पुतली की दाँई आँख बाँधना समग्र तीन भवन में विजय प्राप्त करके निर्मल, यश, कीर्ति की जय पताका ग्रहण करना, इन सबसे भी धर्मानुष्ठान से किसी भी अन्य चीज दुष्कर नहीं है यानि उससे सभी चीजों को सिद्धि होती है । [१४८५-१४८७] मस्तक पर बोझ वहन किया जाता है । लेकिन वो बोझ विसामा लेते-लेते वहन किया जाता है । जब काफी महान शील का बोझ विश्रान्ति रहित जीवनपर्यन्त वहन किया जाता है । इसलिए घर के सारभूत पुत्र द्रव्य आदि का स्नेह छोड़कर निःसंग होकर खेद पाए बिना सर्वोत्तम चारित्र धर्म का सेवन करो । आडम्बर करना, झूठी प्रशंसा करना, वंचना करना, धर्म के वैसे व्यवहार नहीं होते । मायादिक शल्य, छलभाव रहित धर्म है । [१४८८-१४९६] जीव में त्रसपन, सपन में भी पंचेन्द्रियपन उत्कृष्ट है । पंचेन्द्रियपन में भी मानवपन उत्तम है । उसमें आर्यदेश, आर्यदेश में उत्तमकुल, उत्तमकुल में उत्कृष्ट जातिज्ञाति और फिर उसमें रूप की समृद्धि उसमें भी प्रधानतावाली शक्ति, प्रधानबल मिलने के साथ-साथ लम्बी आयु, उसमें भी विज्ञान-विवेक, विज्ञान में भी सम्यक्त्व प्रधान है । और फिर सम्यक्त्व में शील की प्राप्ति बढ़ियाँ मानी है । शील में क्षायिक भाव, क्षायिक भाव में केवलज्ञान, प्रतिपूर्व केवलज्ञान प्राप्त होना यानि जरा मरण रहित मोक्ष प्राप्त हो । जन्म, जरा, मरण आदि के दुःख से बँधे जीव को इस संसार में कही भी सुख नहीं मिलता । इसलिए एकान्त मोक्ष ही उपदेश पाने के लायक है । ८४ लाख योनि में अनन्त बार दीर्घकाल तक भ्रमण करके अभी तुमने उस मोक्ष को साधने के लायक काफी चीजे पाइ है तो आज तक पहले किसी दिन न पाइ हुइ ऐसी उत्तम चीजे पाइ है तो हे लोगो ! तुम उसमें जल्द उद्यम करो । विबुध पंड़ित ने निन्दित संसार की परम्परा बढ़ानेवाले ऐसे इस स्नेह को छोडो, धर्मश्रवण करके अनेक क्रोडो वर्षों में दुर्लभ ऐसे सुंदर धर्म को यदि तुम यहाँ सम्यक् तरीके से नहीं करोगे तो फिर उस धर्म की प्राप्ति दुर्लभ होगी । प्राप्त बोधि सम्यक्त्व के अनुसार यहाँ जो धर्म प्रवृत्ति नही करता और आनेवाले भव में धर्म करेंगे ऐसी प्रार्थना करे वो भावी भव में किस मूल्य से बोधि प्राप्त करेंगे । [१४९७] पूर्वभव के जातिस्मरण होने से ब्राह्मणी ने जब यह सुना तब हे गौतम ! समग्र बँधुवर्ग और दुसरे कइ नगरजन को प्रतिबोध हुआ । हे गौतम ! उस अवसर पर सद्गति का मार्ग अच्छी तरह से मिला है वैसे गोविंद ब्राह्मण ने कहा कि धिक्कार है मुझे, इतने अरसे तक हम बनते रहे, मूढ़ बने रहे, वाकइ अज्ञान महाकष्ट है । निर्भागी-तुच्छ आत्मा को घोर उग्र परलोक विषयक निमित्त जिन्हे पता नहीं है, अन्य में आग्रहवाली बुद्धि करनेवाले, पक्षपात के मोहाग्नि को उत्तेजित करने के मानसवाले, राग-द्वेष से वध की गइ बुद्धिवाले, यह आदि दोषवाले को इस उत्तम धर्म समजना काफी
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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