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________________ देवेन्द्रस्तव- २७८ के आकार - वाली है । [२७९] सिद्ध शिला पर एक योजन के बाद लोक का अन्त होता है । उस एक योजन के ऊपर के सोलहवे हिस्से में सिद्ध स्थान अवस्थित है । ६५ [ २८०] वहाँ वो सिद्ध निश्चय से वेदना रहित, ममतारहित, आसक्ति रहित और शरीर रहित घनीभूत आत्मप्रदेश से निर्मित आकारवाले होते है । [ २८१] सिद्ध कहाँ अटकते है ? कहाँ प्रतिष्ठित होते है ? शरीर का कहाँ त्याग करते है ? और फिर कहाँ जाकर सिद्ध होते है ? [ २८२] सिद्ध भगवंत अलोक के पास रुकते है, लोकाग्र में प्रतिष्ठित होते है यहां शरीर को छोड़ते है और वहां जाकर सिद्ध होते है । [ २८३] शरीर छोड़ देते वक्त अंतिम वक्त पर जो संस्थान हो, उसी संस्था को ही आत्म प्रदेश घनीभूत होकर वे सिद्ध अवस्था पाते है । [ २८४] अन्तिम भव में शरीर का जो दीर्घ या ह्रस्व प्रमाण होता है । उसका एक तृतीयांश हिस्सा कम होकर सिद्ध की अवगाहना होती है । [२८५] सिद्ध की उत्कृष्ट अवगाहना ३३३ धनुप से कुछ ज्यादा होती है वैसा समज । [ २८६ ] सिद्ध की मध्यम अवगाहना ४ हाथ पूर्ण के ऊपर दो तृतियांश हस्त प्रमाण कहा है । रत्नी यानि एक हाथ प्रमाण जिसमे कोश में देढ फूट प्रमाण कहा है । [२८७] जघन्य अवगाहना १ हाथ प्रमाण और आँठ अंगुल से कुछ अधिक है । [ २८८] अन्तिम भव के शरीर के तीन हिस्सों में से एक हिस्सा न्यून अर्थात् दो तृतीयांश प्रमाण सिद्ध की अवगाहना कही है । [२८९] जरा और मरण से विमुक्त अनन्त सिद्ध होते है । वे सभी लोकान्त को छूते हुए एक दुसरे की अवगाहना करते है । [२९०] अशरीर सघन आत्मप्रदेशवाले अनाकार दर्शन और साकार ज्ञान में अप्रमत्त सिद्ध का लक्षण है । [२९१] सिद्ध आत्मा अपने प्रदेश से अनन्त सिद्ध को छूता है । देश प्रदेश से सिद्ध भी असंख्यात गुना है । [२९२] केवलज्ञान में उपयोगवाले सिद्ध सभी द्रव्य के हर एक गुण और हर एक पर्याय को जानते है । अनन्त केवल दृष्टि से सब देखते है । [२९३] ज्ञान और दर्शन दोनों उपयोग में सभी केवली को एक समय एक उपयोग होता है । दोनों उपयोग एक साथ नहीं होता । [२९४] देवगण समूह के समस्त काल के समस्त सुख को अनन्त गुने किए जाए और पुनः अनन्त वर्ग से वर्गित किया जाए तो भी मुक्ति के सुख की तुलना नहीं हो शकती । [२९५] मुक्ति प्राप्त सिद्ध को जो अव्याबाध सुख है वो सुख मानव या समस्त देव को भी नहीं होता । [२९६] सिद्ध के समस्त सुख - राशि को समस्त काल से गुना करके उसका अनन्त वर्गमूल नीकालने से प्राप्त अंक समस्त आकाश में समा नहीं शकता । [२९७] जिस तरह किसी म्लेच्छ कईं तरह के नगर गुण को जानता हो तो भी अपनी 10 5
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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