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________________ संस्तारक-१०५ [१०५] ऐसे अतिचारों को खमानेवाला और अनुत्तर तप एवं अपूर्व समाधि को प्राप्त करनेवाली क्षपक आत्मा; बहुविध बाधा संताप आदि के मूल कारण कर्मसमूह को खपाते हुए समभाव में विहरता है । [१०६] अनगिनत लाख कोटि अशुभ भव की परम्परा द्वारा जो गाढ़ कर्म बाँधा हो; उन सर्व कर्मसमूह को संथारा पर आरूढ़ होनेवाली क्षपक आत्मा, शुभ अध्यवसाय के योग से एक समय में क्षय करते है । [१०७] इस अवसर पर, संथारा पर आरूढ़ हुए महानुभाव क्षपक को शायद पूर्वकालीन अशुभ योग से, समाधिभाव में विघ्न करनेवाला दर्द उदय में आए, तो उसे शमा देने के लिए गीतार्थ ऐसे निर्यामक साधु बावना चन्दन जैसी शीतल धर्मशिक्षा दे । [१०८] हे पुण्य पुरुष ! आराधना में ही जिन्होंने अपना सबकुछ अर्पण किया है, ऐसे पूर्वकालीन मुनिवर; जब वैसी तरह के अभ्यास बिना भी कई जंगली जानवर से चारो ओर घेरे हुए भयंकर पर्वत की चोटी पर कायोत्सर्गध्यान में रहते थे । [१०९] और फिर अति धीरवृत्ति को धरनेवाले इस कारण से श्री जिनकथित आराधना की राह में अनुत्तर रूप से विहरनेवाले वो महर्षि पुरुप, जंगली जानवर की दाढ़ में आने के बावजूद भी समाधिभाव को अखंड रखते है और उत्तम अर्थ की साधना करते है । [११०] 'हे सुविहित ! धीर और स्वस्थ मानसवृत्तिवाले निर्यामक साधु, जब हमेशा सहाय करनेवाले होते है ऐसे हालात में समाधिभाव पाकर क्या इस संथारे की आराधना का पार नही पा शकते क्या ? मतलब तुझे आसानी से इस संथारा के पार को पाना चाहिए । [१११] क्योकि जीव शरीर से अन्य है, वैसे शरीर भी जीव से भिन्न है । इसलिए शरीर के ममत्व को छोड देनेवाले सुविहित पुरुष श्री जिनकथित धर्म की आराधना की खातिर अवसर पर शरीर का भी त्याग कर देते है । [११२] 'संथारा पर आरूढ़ हुए क्षपक, पूर्वकालीन अशुभ कर्म के उदय से पेदा हुई वेदनाओं को समभाव से सहकर, कर्म स्थान कलंक की परम्परा को वेलड़ी की तरह जड़ से हिला देते है । इसलिए तुम्हें भी इस वेदना को समभाव से सहन करके कर्म का क्षय कर देना चाहिए।' [११३] बहुत क्रोड साल तक तप, क्रिया आदि के द्वारा आत्मा जो कर्मसमूह को खपाते है । मन, वचन, काया के योग से आत्मा की रक्षा करनेवाले ज्ञानी आत्मा, उस कर्मसमूह को केवल साँस में खपाते हैं । क्योंकि सम्यग्ज्ञान पूर्वक के अनुष्ठान का प्रभाव अचिन्त्य है । [११४] मन, वचन और काया से आत्मा का जतन करनेवाले ज्ञानी आत्मा, बहुत भव से संचित किए आँठ प्रकार के कर्मसमूह समान पाप को केवल साँस में खपाते है । इस कारण से हे सुविहित ! सम्यग्ज्ञान के आलम्बन पूर्वक तुम्हें भी इस आराधना में उद्यमी रहना चाहिए । [११५] इस प्रकार के हितोपदेशरूप आलम्बन को पानेवाले सुविहित आत्माएँ, गुरु आदि वडीलो से प्रशंसा पानेवाले संथारा पर धीरजपूर्वक आरूढ़ होकर, सर्व तरह के कर्म मल को खपानेपूर्वक उस भव में या तीसरे भव में अवश्य सिद्ध होता है और महानन्द पद को प्राप्त
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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