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________________ २४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद यह मैं आज सर्व तरह के अपराध को खमाता हूँ । माता-पिता समान सर्व जीव मुझे क्षमा करना ।" [९२] धीर पुरुषने प्ररूपे हुए और फिर सत्पुरुष से सदा सेवन किए जानेवाले, और कायर आत्माएँ के लिए अति दुष्कर ऐसे पंड़ित मरण-संथारा को, शिलातल पर आरूढ़ हुए निःसंग और धन्य आत्माएँ साधना करती है । [९३] सावध होकर तूं सोच । तुने नरक और तिर्यंच गति में और देवगति एवं मानवगति में कैसे कैसे सुख दुःख भुगते है ? [९४] हे मुमुक्षु ! नरक के लिए तुने असाता बहुल दुःखपूर्ण, असामान्य और तीव्र दर्द को शरीर की खातिर प्रायः अनन्तीबार भुगता है । [९५] और फिर देवपन में और मानवपन में पराये दासभाव को पाकर तुने दुःख, संताप और त्रास को उपजानेवाले दर्द को प्रायःअनन्तीबार महसूस किया है और हे पुण्यवान् । [९६] तिर्यश्चगति को पाकर पार न पा शके ऐसी महावेदनाओ को तुने कई बार भुगता है । इस तरह जन्म और मरण समान रेंट के आर्वत जहाँ हमेशा चलते है, वैसे संसार में तू अनन्तकाल भटका है । [९७] संसार के लिए तुने अनन्तकाल तक अनन्तीबार अनन्ता जन्म मरण को महसूस किया है । यह सब दुःख संसारवर्ती सर्व जीव के लिए सहज है । इसलिए वर्तमानकाल के दुःख से मत घबराना और आराधना को मत भूलना । [९८] मरण जैसा महाभय नहीं है और जन्म समान अन्य कोई दुःख नहीं है । इसलिए जन्म-मरण समान महाभय की कारण समान शरीर के ममत्वभाव को तूं शीघ्र छेद डाल। [९९] यह शरीर जीव से अन्य है । और जीव शरीर से भिन्न है यह निश्चयपूर्वक दुःख और कलेश की जड़ समान उपादान रूप शरीर के ममत्व को तुजे छेदना चाहिए । क्योंकि भीम और अपार इस संसार में, आत्मा ने शरीर सम्बन्धी और मन सम्बन्धी दुःख को अनन्तीबार भुगते है । [१००] इसलिए यदि समाधि मरण को पाना हो तो उस उत्तम अर्थ की प्राप्ति के लिए तुझे शरीर आदि अभ्यन्तर और अन्य बाह्य परिग्रह के लिए ममत्त्वभाव को सर्वथा वोसिरा देनात्याग करना चाहिए। [१०१] जगत के शरण समान, हितवत्सल समस्त संघ, मेरे सारे अपराधों को खमो और शल्य से रहित बनकर मैं भी गुण के आधार समान श्री संघ को खमाता हूँ। [१०२] और 'श्री आचार्यदेव, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल और गण आदि जो किसी को मैंने कषाय उत्पन्न करवाया हो, कपाय की मैं कारण वना होता उन सबको मैं त्रिविध योग से खमाता हूँ ।' [१०३] सर्व श्रमण संघ के सभी अपराध को मैं मस्तक पर दो हाथ जुड़ने समान अंजलि करके खमाता हूँ । और मैं भी सबको क्षमा करता हूँ । [१०४] और फिर मैं जिनकथित धर्म में अर्पित चित्तवाला होकर सर्व जगत के जीव समूह के साथ बंधुभाव से निःशल्य तरह से खमता हूँ । और मैं भी सबको खमाता हूँ ।
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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