SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महानिशीथ-३/-/६२२ २३५ वेश आदि से सजावट करके कामाग्नि को प्रदीप्त करनेवाली नारकी और तिर्यंचगति में अनन्त दुःख दिलानेवाली इन स्त्रीीं के अंग उपांग आभूषण आदि को अभिलाषा पूर्वक सराग नजर से देखना वो वक्षुकुशील कहलाता है । [६२३-६२४] और घ्राणकुशील उसे कहते है कि जो अच्छी सुगंध लेने के लिए जाए और दुर्गंध आती हो तो नाक टेढ़ा करे, ढुंगछा करे और श्रवण कुशील दो तरह के समजना । एक प्रशस्त और दुसरा अप्रशस्त । उसमें जो भिक्षु अप्रशस्त ऐसे कामराग को उत्पन्न करनेवाले, उद्दीपन करनेवाले, उज्जवल करनेवाले, गंधर्वनाटक, धनुर्वेद, हस्तशिक्षा, कामशास्त्र रतिशास्त्र आदि श्रवण करके उसकी आलोचना न करे यावत् उसका प्रायश्चित् आचरण न करे उसे प्रशस्त श्रवण कुशील मानना । और जीह्वाकुशील कई तरह के मानना, वो इस प्रकार - कटु, तीखे स्वादहीन, मधुर, खट्टे, खारा रस का स्वाद करना । न देखे, अनसुने, आलोक, परलोक, उभयलोक, विरुद्धदोषवाले, मकार-जकार मम्मो चच्चो ऐसे अपशब्द उच्चारना । अपयश मिले ऐसे झूठे आरोप लगाना, अछत्ता कलंक चड़ाना, शास्त्र जाने बिना धर्मदेशना करने की प्रवृत्ति करना । उसे जिह्वाकुशील मानना । हे भगवंत ! भाषा बोलने से भी क्या कुशीलपन हो जाता ? हे गौतम! हा, ऐसा होता है । हे भगवंत ! तो क्या धर्मदेशना न करे । हे गौतम ! सावद्यनिरवद्य वचन के बीच जो फर्क नहीं जानता, उसे बोलने का भी अधिकार नहीं, तो फिर धर्मदेशना करने का तो अवकाश ही कहाँ है । [६२५] और शरीर कुशील दो तरह के जानना, कुशील चेष्टा और विभूषा - कुशील, उसमें जो भिक्षु इस कृमि समूह के आवास समान, पंछी और श्वान के लिए भोजन समान । सड़ना, गिरना, नष्ट होना, ऐसे स्वाभाववाला, अशुचि, अशाश्वत, असार ऐसे शरीर को हमेशा आहारादिक से पोषे और वैसी शरीर की चेष्टा करे, लेकिन सेंकड़ों भव में दुर्लभ ऐसे ज्ञानदर्शन आदि सहित ऐसे शरीर से अति घोर वीर उग्र कष्टदायक घोर तप संयम के अनुष्ठान न आचरे उसे चेष्टा कुशील कहते है । और फिर जो विभूषा कुशील है वो भी कई तरह के वो इस प्रकार - तेल से शरीर को अभ्यंगन करना, मालिश करना, लेप लगाना, अंग पुरुषन करवाना, स्नान- विलेपन करना, मैल घिसकर दूर करना, तंबोक खाना, धूप देना, खुशबुदार चीज से शरीर को वस्त्र वासित करना, दाँत घिसना, मुलायम करना, चहेरा सुशोभित बनाना, पुष्प या उसकी माला पहनना, बाल बनाना, जूते - पावड़ी इस्तेमाल करना, अभिमान से गति करना, बोलना, हँसना, बैठना, उठना, गिरना, खींचना, शरीर की विभूषा दिखे उस प्रकार वस्त्रो को पहनना, दंड ग्रहण करना, ये सब को शरीर विभूषा कुशील साधु समजना । यह कुशील साधु प्रवचन की उड़ाहणा- उपघात करवानेवाले, जिसका भावि परिणाम दुष्ट है वैसे अशुभ लक्षणवाला, न देखने लायक महा पाप कर्म करनेवाला विभूषा- कुशील साधु होता है । इस प्रकार दर्शनकुशील प्रकरण पूरा हुआ । [६२६] अब मूलगुण और उत्तरगुण में चारित्रकुशील अनेक प्रकार के जानना । उसमें पाँच महाव्रत और रात्रि भोजन छठ्ठा - ऐसे मूलगुण बताए है । वो छ के लिए जो प्रमाद करे,
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy