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________________ महानिशीथ-३/-/५९९ २३१ में हो या सामायिक में न हो तो भी पढ़ शकते है । लेकिन सामायिक आदि सूत्र आरम्भ परिग्रह का त्याग करके और जावजीव सामायिक करके ही पढ़ा जाता है | आरम्भ-परिग्रह का त्याग किए बिना या जावजीव के सामायिक-सर्व विरति ग्रहण किए बिना पढ़े नहीं जा शकते। और पंचमंगल आलावे, आलापके-आलापके और फिर शक्रस्तवादिक और बारह अंग समान श्रुतज्ञान के उद्देशा । अध्ययन का (समुद्देश-अनुज्ञा विधि वक्त) आयंबिल करना । [६००] हे भगवंत ! यह पंचमंगल श्रुतस्कंध पढ़ने के लिए विनयोपधान की बड़ी नियंत्रणा-नियम बताए है । बच्चे ऐसी महान नियंत्रणा किस तरह कर शकते है ? हे गौतम ! जो कोइ इस बताई हुई नियंत्रणा की इच्छा न करे, अविनय और उपधान किए बिना यह पंचमंगल आदि श्रुतज्ञान पढ़े या पढ़ाए या उपधान पूर्वक न पढ़े या पढ़ानेवाले को अच्छा माने उसे नवकार दे या वैसे सामायिक आदि श्रुतज्ञान पढ़ाए तो प्रियधर्मवाला या दृढ़ धर्मवाला नहीं माना जाता । श्रुत की भक्तिवाला नहीं माना जाता । उस सूत्र की, अर्थ की, सूत्र, अर्थ, तदुभय की हीलना करनेवाला होता है । गुरु की हीलना करनेवाला होता है । जो सूत्र, अर्थ और उभय एवं गुरु की अवहेलना करनेवाला हो वो अतीत, अनागत और वर्तमान तीर्थंकर की आशातना करनेवाला बने जिसने श्रुतज्ञान, अरिहंत, सिद्ध और साधु की आशातना की उस दीर्घकाल तक अनन्ता संसार सागर में अटका रहता है, उस तरह के गुप्त और प्रकट, शीत उष्ण, मिश्र और कई ८४ लाख प्रमाणवाली योनि में बार-बार उत्पन्न होता है । और फिर गहरा अंधकार-बदबूवाले विष्ठा, प्रवाही, पिशाब, पित्त, बलखा, अशुचि चीज से परिपूर्ण चरबी, ओर, परु, उल्टी, मल, रुधिर के चीकने कीचड़वाले, देखने में अच्छा न लगे वैसे बिभत्स घोर गर्भवास में अपार दर्द सहना पड़ता है । कढ़-कढ़ करनेवाले, कठित, चलचल शब्द करके चलायमान होनेवाला टल-टल करते हुए टालनेवाला, रझड़ने वाला सर्व अंग इकट्ठे करके जैसे जोरसे गठरी में बाँधी हो वैसे लम्बे अरसे तक नियंत्रणा -वेदना गर्भावास में सहना पड़ता है । जो शास्त्र में बताई हुई विधि से इस सूत्रादिक को पढ़ते है जरा सा भी अतिचार नहीं लगाते । यथोक्त विधान से पंचमंगल आदि श्रुतज्ञान का विनयोपधान करते है, वे हे गौतम ! उस सूत्र की हीलना नहीं करते । अर्थ की हीलना-आशातना नहीं करते, सूत्र-अर्थ, उभय की आशातना नहीं करते, तीन काल में होनेवाले तीर्थंकर की आशातना नहीं करता, तीन लोक की चोटी पर वास करनेवाले कर्मरज समान मैल को जिन्होंने दूर किया है। ऐसे सिद्ध की जो आशातना नहीं करते, आचार्य, उपाध्याय और साधु की आशातना नहीं करते । अति प्रियधर्मवाले दृढ़ धर्मवाले और एकान्त भक्तियुक्त होते है । सूत्र अर्थ में अति रंजित मानसवाला वो श्रद्धा और संवेग को पानेवाला होता है इस तरह का पुण्यशाली आत्मा यह भव रूपी कैदखाने में बारबार गर्भवास आदि नियंत्रण का दुःख भुगतनेवाला नहीं होता । [६०१] लेकिन हे गौतम ! जिसने अभी पाप-पुण्य का अर्थ न जाना हो, ऐसा बच्चा उस "पंच मंगल" के लिए एकान्ते अनुचित है । उसे पंचमंगल महाश्रुतस्कन्ध का एक भी आलावा मत देना । क्योंकि अनादि भवान्तर में उपार्जन किए कर्मराशि को बच्चे के लिए यह
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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