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________________ महानिशीथ-१/-/६७ १८१ [६७-६८] सम्यक् तरह से गुरु भगवंत को खमाकर अपनी शक्ति अनुसार ज्ञान की महिमा करे । फिर से वंदन विधि सहित वंदन करे । परमार्थ, तत्त्वभूत और सार समान यह शल्योद्धरण किस तरह करना वो गुरु मुख से सुने । सुनकर उस मुताबिक आलोचना करे, कि जिसकी आलोचना करने से केवलज्ञान उत्पन्न हो । [६९-७०] ऐसे सुन्दर भाव में रहे हो और निःशल्य आलोचना की हो कि जिससे आलोचना करते-करते वहीं केवलज्ञान उत्पन्न हो । हे गौतम ! वैसे कुछ महासत्त्वशाली महापुरुष के नाम बताते है कि जिन्होंने भाव से आलोचना करते-करते केवलज्ञान उत्पन्न किया। [७१-७५] हाँ, मैंने दुष्ट काम किया, दुष्ट सोचा, हाँ मैंने झूठी अनुमोदना की...उस तरह संवेग से और भाव से आलोचना कनवाला केवलज्ञान पाए । इर्यासमिति पूर्वक पाँव स्थापन करते हुए केवली बने, मुहपत्ति प्रतिलेखन से केवलि बने, सम्यक् तरह से प्रायश्चित् ग्रहण करने से केवली बने, “हा-हा मैं पापी हूँ" ऐसा विचरते हुए केवली बने । “हा हा मैंने उन्मत्त बनकर उन्मार्ग की प्ररूपणा करके ऐसे पश्चाताप करते हुए केवली बने । अणागाररूप में केवली बने, सावध योग से सेवन मत करना" - उस तरह से अखंड़ितशील पालन से केवली बने, सर्व तरह से शील का रक्षण करते हुए, कोडी-करोड़ तरह से प्रायश्चित् करते हुए भी केवली बने । [७६-७८] शरीर की मलिनता साफ करने समान निष्पतिकर्म करते हुए, न खुजलानेवाले, आँख की पलक भी न झपकाते केवली बने, दो प्रहर तक एक बगल में रहकर, मौनव्रत धारण करके भी केवली बने, “साधुपन पालने के लिए मैं समर्थ नहीं हूँ इसलिए अनशन में रहूँ" ऐसा करते हुए केवली बने, नवकार गिनते हुए केवली बने, “मैं धन्य हूँ कि मैंने ऐसा शासन पाया, सब सामग्री पाने के बाद भी मैं केवली क्यों न हुआ ?" ऐसी भावना से केवली बने । [७९-८०] (जब तक दृढ़प्रहारी की तरह लोग मुझे) पाप-शल्यवाला बोले तब तक काऊस्सग पारुंग नहीं उस तरह केवली बने, चलायमान काष्ठ-लकड़े पर पाँव पड़ने से सोचे कि अरे रे ! अजयणा होगी, जीव-विराधना होगी ऐसी भावना से केवली बने, शुद्ध पक्ष में प्रायश्चित् करूँ ऐसा कहने से केवली बने । “हमारा जीवन चंचल है" - "यह मानवता अनित्य और क्षणविनाशी है" उस भाव से केवली बने । [८१-८३] आलोचना, निंदा, वंदना, घोर और दुष्कर प्रायश्चित् सेवन - लाखो उपसर्ग सहन करने से केवली बने, (चंदनबाला का हाथ दूर करने से जिस तरह केवलज्ञान हुआ वैसे) हाथ दूर करने से, निवासस्थान करते, अर्धकवल यानि कुरगडुमुनि की तरह खाते-खाते, एक दाना खाने समान तप प्रायश्चित् करने से दस साल के बाद केवली बने । प्रायश्चित् शुरू करनेवाले, अर्द्धप्रायश्चित् करनेवाले केवली, प्रायश्चित् पूरा करनेवाला, उत्कृष्ट १०८ गिनतीमें ऋषभ आदि की तरह केवल पानेवाले केवली । [८४-८७] "शुद्धि और प्रायश्चित् बिना जल्द केवली बने तो कितना अच्छा" ऐसी भावना करने से केवली बने । “अब ऐसा प्रायश्चित् करूँ कि मुजे तप आचरण न करने पड़े" ऐसा विचरने से केवली बने । “प्राण के परित्याग से भी मैं जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा का
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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