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________________ १८० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद रहित और क्षमावाला बनाना । जो कोई भी दुष्ट व्यवहार किया हो उन सबका त्रिविध मन, वचन और काया से निःशल्यभाव से “मिच्छामिदुक्कड्म्" देना चाहिए । [४८-५०] फिर से चैत्यालय में जाकर वित्तराग परमात्मा की प्रतिमा की एकाग्र भक्तिपूर्ण हृदय से हरएक की वंदना-स्तवना करे । चैत्य को सम्यग् विधि सहित वंदना करके छठ भक्त तप करके चैत्यालय में यह श्रुतदेवता नामक विद्याका लाख प्रमाण जप करे । सर्वभाव से उपशान्त होनेवाला, एकाग्रचित्तवाला, दृढ़ निश्चयवाला, उपयोगवाला, डामाडोल चित्त रहित, राग-रति-अरति से रहित बनकर चैत्यालय की पवित्र जगह में विधिवत् जप करे। [५१] (इस सूत्र में मंत्राक्षर है । जिसका हिन्दी अनुवाद नहीं हो शकता जिज्ञासुओ को हमारा आगमसुत्ताणि भाग-३९ महानिसीह पृष्ठ-५ देखना चाहिए) [५२] सिद्धांतिओ ने यह विद्या सूत्र-५१ में मूल अर्धमागधी में दी हुई महाविद्या लीपी शब्द से लिखी है । शास्त्र के मर्म को समजा न हो और कुशीलवाला हो उन्हे गीतार्थ श्रुतधर को यह प्रवचन विद्या न देना या उनको प्ररूपना नहीं चाहिए । [५३-५५] यह श्रेष्ठ विद्यासे सभी तरीके से खुद को अभिमंत्रित करके उस क्षमावान् इन्द्रिय का दमन करनेवाले और जितेन्द्रय सो जाए नींद में जो शुभ या अशुभ सपना आए उसे अच्छी तरह से अवधारण करे, याद रखे, वहाँ जिस तरह का सपना देखा हो उसके अनुसार शुभ या अशुभ बने...यदि सुंदर सपना हो तो यह महा परमार्थ-तत्तत्त्व सारभूत शल्योद्धार बने ऐसा समजना ।। [५६-५७] इस तरह आँठ मद को और लोक के अग्र हिस्से बिराजमान सिद्ध को स्तवता हो वैसे निःशल्य होने की अभिलाषावाले आत्मा को शुद्ध आलोचना देना । अपने पाप की आलोचना करके, गुरु के पास प्रकट करके शल्यरहित बने । उसके बाद भी चैत्य और साधु को वंदन करके साधु को विधिवत् खमाए । [५८-६२] पापशल्य को खमाकर फिर से विधिवत् देव-असुर सहित जगत को आनन्द देते हुए निर्मूल पन से शल्य का उद्धार करते है । उस मुताबिक शल्यरहित होकर सर्व भाव से फिर से विधि सहित चैत्य को वांदे और साधर्मिक को खमाए । खास करके जिसके साथ एक उपाश्रय वसति में वास किया है । जिसके साथ गाँव-गाँव विचरण किया हो, कठिन वचन से जिन्होंने सारणादिक प्रेरणा दी हो, जिन किसी को भी कार्य अवसर या कार्य बिना कठिन, कड़े, निष्ठुर वचन सुनाए हो, उसने भी सामने कुछ प्रत्युत्तर दिया है, वो शायद जिन्दा या मरा हुआ हो तो उसे सर्व भाव से खमाए, यदि जिन्दा हो तो वहाँ जाकर विनय से खमाए, मरे हुए हो तो साधु साक्षी से खमाए । [६३-६५] उस प्रकार तीन भुवन को भी भाव से क्षामणा करके मन, वचन, काया के योग से शुद्ध होनेवाला वो निश्चयपूर्वक इस प्रकार घोषित करे, “मैं सर्व जीव को खमाता हूँ । सर्व जीव मुझे क्षमा दो । सर्व जीव के साथ मुजे मैत्री भाव है । किसी भी जीव के साथ मुजे बैर-भाव नहीं...भवोभव में हरएक जीव के सम्बन्ध में आनेवाला मैं मन, वचन, काया से सर्वभाव से सर्व तरह से सबको खमाता हैं। [६६] इस प्रकार स्थापना, घोषणा करके चैत्यवंदना करे, साधु की साक्षी पूर्वक गुरु की भी विधिवत् क्षमा याचना करे ।
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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