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________________ जीतकल्प - ५३ या दिन में सोए तो उपवास तप प्रायश्चित् । [ ५४ ] कई दिन तक क्रोध रखे, कंकोल नाम का फल, लविंग, जायफल, लहसुन आदि का तण्णग- मोर आदि का संग्रह करे तो पुरिमड्ड । १७३ [ ५५ ] छिद्र रहित या कोमल और बिना कारण भुगते तो निवि, अन्य घास को भुगतते हुए या अप्रतिलेखित घास पर शयन करवाते पुरिमड्ड तप प्रायश्चित् । [ ५६ ] आचार्य की आज्ञा बिना स्थापना कुल में भोजन के लिए प्रवेश करे तो एकासणा, पराक्रम गोपे तो एकासणा, उस मुताबिक जीत व्यवहार है । सूत्र व्यवहार मुताबिक माया रहित हो तो एकासणा माया सहित हो तो उपवास । [ ५७ ] दौड़ना-कूदना आदि में वर्तते पंचेन्द्रिय के वध की संभावना है । अंगादान - शुक्र निष्क्रमण आदि संकिलष्ट कर्म में काफी अतिचार लगे, आधा कर्मादि सेवन रस से ग्लान आदि का लम्बा सहवास करे उन सब में पंचकल्याणक प्रायश्चित् तप आता है । [५८] सर्व उपधि आदि को धारण करते हुए प्रथम पोरिसि के अन्तिम हिस्से में यानि पादोनपोरस के वक्त या प्रथम और अन्तिम पोरिसि के अवसर पर पड़िलेहण न करे । चोमासी में या संवत्सरी के दिन शुद्धि करे तो पंचकल्याणक तप प्रायश्चित् । [ ५९ ] जो छेद (प्रायश्चित् ) की श्रद्धा नहीं करता । मेरा पर्याय छेदित या न छेदित ऐसा नहीं जानता अभिमान से पर्याय का गर्व करता है उसे छेद आदि प्रायश्चित् आता है । जीत व्यवहार गणाधिपति के लिए इस प्रकार का है । गणाधिपति को छेद प्रायश्चित् आता हो तो भी तप उचित् प्रायश्चित् देना चाहिए । [६०] इस जीत व्यवहार में जो प्रायश्चित् नहीं बताए उस प्रायश्चित् स्थान को वर्तमान में संक्षेप से मैं कहता हूँ जो निसीह-व्यवहार- कप्पो में बताए गए है । उसे तप से छ मास पर्यन्त के मानना । [६१] (भिन्न शब्द से पच्चीस दिन ग्रहण करने के लिए यहाँ विशिष्ट शब्द से सर्व भेद ग्रहण करना) भिन्न और अविशिष्ट ऐसे जो-जो अपराध सूत्र व्यवहार में बताए उन सबके लिए जित व्यवहार मुताबिक निवि तप आता है । उसमें ज्यादातर इतना कि लघुमास में पुरिमड, गुरुमाँस में एकासणा, लघुचउमासे आयंबिल, गुरु चऊमासे उपवास, लघु छ मासे छठ्ठ, छ गुरु मासे अठ्ठम, ऐसे प्रायश्चित् तप दो । [६२] इन सभी प्रकार से सभी तप के स्थान पर यथाक्रम सिद्धांत में जो तप बताए वहाँ जीत व्यवहार अनुसार निवि से अठ्ठम पर्यन्त तप कहना । [ ६३ ] इस प्रकार जो प्रायश्चित् कहा गया उसके लिए विशेष से कहते है कि सभी प्रायश्चित् का सामान्य एवं विशेष में निर्देश किया गया है । वो दान-विभाग से द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव पुरुष पड़िसेवी विशेष से मानना । यानि द्रव्य आदि को जानकर उस प्रकार देना । कम अधिक या सहज उस मुताबिक शक्ति विशेष देखकर देना । [६४-६७] द्रव्य से जिसका आहार आदि हो, जिस देश में वो ज्यादा हो, सुलभ हो वो जानकर जीत व्यवहार अनुसार प्रायश्चित् देना । जहाँ आहार आदि कम हो, दुर्लभ हो वहाँ कम प्रायश्चित् दो...क्षेत्र रूक्ष -स्निग्ध या साधारण है यह जानकर रूक्ष में कम, साधारण में जिस तरह से जीत व्यवहार में कहा हो ऐसे और स्निग्ध में अधिक प्रायश्चित् दो, उस प्रकार
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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