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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद १६० अनाथ जन के रक्षक को मार डाले तो वह महामोहनीय कर्म बांधता है । [७५- ७७] जो, पापविरत मुमुक्षु, संयत तपस्वी को धर्म से भ्रष्ट करे... अज्ञानी ऐसा वह जिनेश्वर के अवर्णवाद करे... अनेक जीवो को न्याय मार्ग से भ्रष्ट करे, न्याय मार्ग की द्वेषपूर्वक निन्दा करे तो वह महामोहनीय कर्म बांधता है । [ ७८-७९] जिस आचार्य या उपाध्याय के पास से ज्ञान एवं आचार की शिक्षा ली हो - उसी की अवहेलना करे... अहंकारी ऐसा वह उन आचार्य उ - उपाध्याय की सम्यक् सेवा न करे, आदर-सत्कार न करे, तब महामोहनीय कर्म बांधता है । [८०-८३] जो बहुश्रुत न होते हुए भी अपने को बहुश्रुत, स्वाध्यायी, शास्त्रज्ञ कहे, तपस्वी न होते हुए भी अपने को तपस्वी बताए, वह सर्व जनो में सबसे बडा चोर है ।... “शक्तिमान होते हुए भी ग्लान मुनि की सेवा न करना" - ऐसा कहे, वह महामूर्ख, मायावी और मिथ्यात्वी- कलुषित चित्त होकर अपने आत्मा का अहित करता है । यह सब महामोहनीय कर्म बांधते है । [८४] चतुर्विध श्री संघ में भेद उत्पन्न करने के लिए जो कलह के अनेक प्रसंग उपस्थित करता है, वह महामोहनीय कर्म बांधता है । [८५-८६] जो ( वशीकरण आदि ) अधार्मिक योग का सेवन स्वसन्मान, प्रसिद्धि एवं प्रिय व्यक्ति को खुश करने के लिए बारबार विधिपूर्वक प्रयोग करे, जीवहिंसादि करके वशीकरण प्रयोग करे... प्राप्त भोगो से अतृप्त व्यक्ति, मानुषिक और दैवी भोगो की बारबार अभिलाषा करे वह महामोहनीय कर्म बांधता है । [८७-८८] जो ऋद्धि, धुति, यश, वर्ण एवं बल-वीर्य युक्त देवताओ का अवर्णवाद करता है... जो अज्ञानी पूजा की अभिलाषा से देव-यक्ष और असुरो को न देखते हुए भी मैं इन सबको देखता हुं ऐसा कहे वह महामोहनीय कर्म बांधता है । [८९] ये तीस स्थान सर्वोत्कृष्ट अशुभ फल देनेवाले बताये है । चित्त को मलिन करते है, इसीलिए भिक्षु इसका आचरण न करे और आत्मगवेषी होकर विचरे । [९०-९२] जो भिक्षु यह जानकर पूर्वकृत् कृत्य - अकृत्य का परित्याग करे, उन-उन संयम स्थानो का सेवन करे जिससे वह आचारवान् बने, पंचाचार पालन से सुरक्षित रहे, अनुत्तरधर्म में स्थिर होकर अपने सर्व दोषो का परित्याग कर दे... जो धर्मार्थी, भिक्षु शुद्धात्मा होकर अपने कर्तव्यो का ज्ञाता होता है, उनकी इस लोक में कीर्ति होती है और परलोक में सुगति होती है । [९३] दृढ, पराक्रमी, शूरवीर भिक्षु सर्व मोहस्थानो का ज्ञाता होकर उनसे मुक्त होता है, जन्म-मरण का अतिक्रमण करता है । ऐसा मैं कहता हूं । दसा - ९ - का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण दसा-१०- आयतिस्थान [९४] उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । गुणशील चैत्य था । श्रेणिक राजा था । चेलणा रानी थी । ( सब वर्णन औपपातिक सूत्रवत् जानना) [१५] तब उस राजा श्रेणिक - भिभिंसारने एक दिन स्नान किया, बलिकर्म किया,
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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