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________________ व्यवहार-२/३९ १२५ वैयावच्च के लिए स्थापित करे और अन्य परिहार तप करे । वो पूरा होने पर वैयावच्च करनेवाले साधु परिहार तप करे और जिन्होंने तप पूरा किया है उनमें से कोइ उसकी वैयावच्च करे । [४०] परिहार तप सेवन करके साधु बिमार हो जाए, दुसरे किसी दोष-स्थान का सेवन करके आलोचना करे तब यदि वो परिहार तप कर शके तो उन्हें तप में रखे और दुसरों को उसकी वैयावच्च करना, यदि वो तप वहनकर शके ऐसे न हो तो अनुपरिहारी उसकी वैयावच्च करे, लेकिन यदि वो समर्थ होने के बावजुद अनुपरिहारी से वैयावच्च करवाए तो उसे सम्पूर्ण प्रायश्चित् में रख दो । [४१] परिहार कल्पस्थित साधु बिमार हो जाए तब उसको गणावच्छेदक निर्यामणा करना न कल्पे, अग्लान होवे तो उसकी वैयावच्च जब तक वो रोग मुक्त होवे तब तक करनी चाहिए, बाद में उसे 'यथालघुसक' नामक व्यवहार में स्थापित करे । [४२] 'अनवस्थाप्य' साधु के लिए उपरोक्त कथन ही जानना । [४३] 'पारंचित' साधु के लिए भी उपरोक्त कथन ही जानना । [४४-५२] व्यग्रचित्त या चित्तभ्रम होनेवाला, हर्ष के अतिरेक से पागल होनेवाला, भूत-प्रेत आदि वलगाडवाले, उन्मादवाले, उपसर्ग से ग्लान बने, क्रोध-कलह से बिमार, काफी प्रायश्चित् आने से भयभ्रान्त बने, अनसन करके व्यग्रचित्त बने, धन के लोभ से चित्तभ्रम होकर बिमार बने किसी भी साधु गणावच्छेदक के पास आए तो उसे बाहर नीकालना न कल्पे । लेकिन नीरोगी साधु को वो बिमारी से मुक्त न हो तब तक उसकी वैयावच्च करनी चाहिए । वो रोगमुक्त हो उसके बाद ही उसे प्रायश्चित् में स्थापित करना चाहिए । [५३-५८] अनवस्थाप्य या पारंचित प्रायश्चित् को वहन कर रहे साधु को गृहस्थ वेश दिए बिना गणावच्छेदक को पुनः संयम में स्थापित करना न कल्पे, गृहस्थ का (या उसके जैसे) निशानीवाला करके स्थापित करना कल्पे, लेकिन यदि उसके गण को (गच्छ या श्रमणसंघ को) प्रतीति हो यानि कि योग्य लगे तो गणावच्छेदक को वो दोनों तरह के साधु को गृहस्थवेश देकर या दिए बिना संयममें स्थापित करे । [५९] समान समाचारीवाले दो साधु साथ में विचरते हो, उसमें से किसी एक अन्य किसी को आरोप लगाने को अकृत्य (दोष) स्थान का सेवन करे, फिर आलोचना करे कि मैंने अमुक साधु को आरोप लगाने के लिए दोष स्थानक सेवन किया है । तब (आचार्य) दुसरे साधु को पूछे कि हे आर्य ! तुमने कुछ दोष का सेवन किया है या नहीं ? यदि वो कहे कि दोष का सेवन किया है तो उसे प्रायश्चित् दे और ऐसा कहे कि मैने दोष सेवन नहीं किया तो प्रायश्चित् न दे । जो प्रमाणभूत कहे इस प्रकार (आचार्य) व्यवहार करे । अब यहाँ शिष्य पूछता है कि हे भगवन्त ऐसा क्यों कहा ? तब उत्तर दे कि यह "सच्ची प्रतिज्ञा व्यवहार" है। यानि कि अपड़िसेवी को अपड़ीसेवी और पड़िसेवी को पड़िसेवी करना । [६०] जो साधु अपने गच्छ से नीकलकर मोह के उदय से असंयम सेवन के लिए निमित्त से जाए । राह में चलते हुए उसके साथ भेजे गए साधु उसे उपशान्त करे तब शुभ कर्म के उदय से असंयम स्थान सेवन किए बिना फिर उसी गच्छ में आना चाहे तब उसने असंयम स्थान सेवन किया या नहीं ऐसी चर्चा स्थविर में हो तब साथ गए साधु को पूछे, हे आर्य ! वो दोष का प्रतिसेवी है या अप्रतिसेवी ? यदि वो कहे कि उसने दोष का सेवन नहीं
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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