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________________ भक्तपरिज्ञा-७९ और छोड़ दिए है । [८०] आराधना समान पताका लेने के लिए नमस्कार हाथ रूप होता है, और फिर सद्गति के मार्ग में जाने के लिए वो जीव को अप्रतिहत रथ समान है । [८१] अज्ञानी गोवाल भी नवकार की आराधना करके मर गया और वह चंपानगरी के लिए श्रेष्ठी पुत्र सुदर्शन के नाम से प्रसिद्ध हुआ । [८२] जिस तरह अच्छे तरीके से आराधन की हुई विद्या द्वारा पुरुष, पिशाच को वश में करता है, वैसे अच्छी तरह से आराधन किया हुआ ज्ञान मन समान पिशाच को वश में करता है । १९९ [८३] जिस तरह विधिवत् आराधन किए हुए मंत्र द्वारा कृष्ण सर्प का उपशमन होता है, उसी तरह अच्छे तरीके से आराधन किए हुए ज्ञान द्वारा मन समान कृष्ण सर्प वश होता है । [८४] जिस तरह बन्दर एक पल भी निश्चल नहीं रह शकता, उसी तरह विषय के आनन्द बिना मन एक पल भी मध्यस्थ (निश्चल) नहीं रह शकता । [८५] उसके लिए वो उठनेवाले मन समान बन्दर को जिनेश्वर के उपदेश द्वारा दोर से बाँधकर शुभ ध्यान के लिए रमण करना चाहिए । [८६] जिस तरह दोर के साथ सूई भी कूड़े में गिर गई हो तो भी वो गुम नहीं होती, उसी तरह ( शुभ ध्यान रूपी) दोर सहित जीव भी संसार में गिर गया हो तो भी नष्ट नहीं होता । [८७] यदि लौकिक श्लोक द्वारा यव राजर्षि ने मरण से बचाया और (राजा) उसने साधुपन पाया, तो जिनेश्वर भगवान के बताए हुए सूत्र द्वारा जीव मरण के दुःख से छूटकारा पाए उसमें क्या कहना ? [८८] या उपशम, विवेक, संवर उन पद को केवल सुनने को ( स्मरण मात्र से) (उतने ही ) श्रुतज्ञानवाले चिलातीपुत्रने ज्ञान और देवत्व पाया । [८९] जीव के भेद को जानकर, जावज्जीव प्रयत्न द्वारा सम्यक् मन, वचन काया के योग से छकाय के जीव के वध का तूं त्याग कर । [१०] जिस तरह तुम्हें दुःख अच्छा नहीं लगता, उसी तरह सर्व जीव को भी दुःख अच्छा नहीं लगता ऐसा जानकर, सर्व आदर से उपयुक्त (सावध ) होकर आत्मवत् हर एक जीव को मानकर दया का पालन कर । [९१] जिस तरह जगत के लिए मेरु पर्वत से ज्यादा कोई ऊँचा नहीं है और आकाश से कोई बड़ा नहीं है, उसी तरह अहिंसा समान धर्म नहीं है ऐसा तू मान ले । [१२] यह जीवने सभी जीव के साथ सभी तरीके से सम्बन्ध पाया है । इसलिए जीव को मारता हुआ तूं सर्व सम्बन्धी को मारता है । [९३] जीव का वध अपना ही वध मानना चाहिए और जीव की दया अपनी ही दया है, इसलिए आत्मा के सुख की इच्छा रखनेवाले जीव ने सर्व जीव हत्या का त्याग किया हुआ है । [१४] चार गति में भटकते हुए जीव को जितने दुःख पड़ते है वो सब हत्या का फल है ऐसा सूक्ष्म बुद्धि से मानना चाहिए ।
SR No.009787
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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