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________________ १७० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद आदि २१००० वीरों का, रुक्मिणी आदि १६००० रानियों का, अनंगसेना आदि अनेक सहस्र गणिकाओं का तथा अन्य बहुत से राजाओं, ईश्वरों यावत् सार्थवाहों वगैरह का उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत पर्यन्त तथा अन्य तीन दिशाओं में लवण समुद्र पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का तथा द्वारका नगरी का अधिपतित्व, नेतृत्व, स्वामित्व, भट्टित्व, महत्तरकत्व आज्ञैश्वर्यत्व और सेनापतित्व करते हुए उनका पालन करते हुए, उन पर प्रशासन करते हुए विचरते थे । उसी द्वारका नगरी में बलदेव नामक राजा थे । वे महान् थे यावत् राज्य का प्रशासन करते हुए रहते थे । उन बलदेव राजा की रेवती नाम की पत्नी थी, जो सुकुमाल थी यावत् भोगोपभोग भोगती हुई विचरण करती थी । किसी समय रेवती देवी ने अपने शयनागार में सोते हुए यावत् स्वप्न में सिंह को देखा । स्वप्न देखकर वह जागृत हुई । उन्हें स्वप्न देखने का वृत्तान्त कहा । यथासमय बालक का जन्म हुआ । महाबल के समान उसने बोहत्तर कलाओं का अध्ययन किया । एक ही दिन पचास उत्तम राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ इत्यादि । विशेषता यह है कि उस बालक का नाम निषध था यावत् वह आमोद-प्रमोद के साथ समय व्यतीत करने लगा । उस काल और उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु पधारे । वे धर्म की आदि करने वाले थे, इत्यादि अर्हत् अरिष्टनेमि दस धनुष की अवगाहना वाले थे । परिषद् निकली । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने यह संवाद सुनकर हर्षित एवं संतुष्ट होकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा-देवानुप्रियो ! शीघ्र ही सुधर्मासभा में जाकर सामुदानिक भेरी को बजाओ। तब वे कौटुम्बिक पुरुष यावत् सुधर्मा सभा में आए और सामुदानिक भेरी को जोर से बजाया। उस सामुदानिक भेरी को जोर-जोर से बजाए जाने पर समुद्रविजय आदि दसार, देवियाँ यावत् अनंगसेना आदि अनेक सहस्र गणिकाएँ तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति स्नान कर यावत् प्रायश्चित्त-मंगलविधान कर सर्व अलंकारों से विभूषित हो यथोचित अपने-अपने वैभव ऋद्धि सत्कार एवं अभ्युदय के साथ जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ उपस्थित हुए । उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर यावत् कृष्ण वासुदेव का जय-विजय शब्दों से अभिनन्दन किया । तदनन्तर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को यह आज्ञा दी-देवानुप्रियो ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को विभूषित करो और चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित करो । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव यावत् स्नान करके, वस्त्रालंकार से विभूषित होकर आरूढ़ हुए । आगे-आगे मांगलिक द्रव्य चले और कूणिक राजा के समान उत्तम श्रेष्ठ चामरों से विंजाते हुए समुद्रविजय आदि दस दसारों यावत् सार्थवाह आदि के साथ समस्त ऋद्धि यावत् वाद्यघोषों के साथ द्वारवती नगरी के मध्य भाग में से निकले इत्यादि वर्णन कूणिक के समान जानना । तब उस उत्तम प्रासाद पर रहे हुए निषधकुमार को उस जन-कोलाहल आदि को सुनकर कौतूहल हुआ और वह भी जमालि के समान ऋद्धि वैभव के साथ प्रासाद से निकला यावत् भगवान् के समवसरण में धर्म श्रवण कर और उसे हृदयंगम करके भगवान् को वंदन-नमस्कार करके इस प्रकार बोला-भदन्त ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ इत्यादि । चित्त सारथी के समान यावत् उसने श्रावकधर्म अंगीकार किया और वापिस लौटा । उस काल और उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमि के प्रधान शिष्य वरदत्त अनगार विचरण कर रहे थे । उन वरदत्त अनगार ने निषधकुमार को देखकर जिज्ञासा हुई यावत् अरिष्टनेमि भगवान् की पर्युपासना करते
SR No.009787
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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