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________________ प्रज्ञापना - ३४ /-/ ५९० १३३ अवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, अथवा उष्ण पुद्गल जैसे उष्णयोनि वाले प्राणी को पाकर अत्यन्त उष्ण अवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, उसी प्रकार उन देवों द्वारा अप्सराओं के साथ काया से परिचारणा करने पर उनका इच्छामन शीघ्र ही तृप्त हो जाता है । [५९१] भगवन् ! क्या उन देवों के शुक्र- पुद्गल होते हैं ? हाँ होते हैं । उन अप्सराओं के लिए वे किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ? गौतम ! श्रोत्रेन्द्रियरूप से यावत् स्पर्शेन्द्रियरूप से, इष्ट रूप से, कमनीयरूप से, मनोज्ञरूप से, अतिशय मनोज्ञ रूप से, सुभगरूप से, सौभाग्यरूप-यौवन-गुण-लावण्यरूप से वे उनके लिए बार-बार परिणत होते हैं । [५९२] जो स्पर्शपरिचारकदेव हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है, काया से परिचारणा करनेवाले देवों के समान समग्र वक्तव्यता कहना । जो रूपपरिचारक देव हैं, उनके मन में इच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करना चाहते हैं । उन देवों द्वारा ऐसा विचार किये जाने पर (वे देवियाँ) उसी प्रकार यावत् उत्तरखैक्रिय रूप की विक्रिया करती है । वे देव के पास जाती हैं, उन देवों के न बहुत दूर और न बहुत पास स्थित होकर उन उदार यावत् मनोरम उत्तरखैक्रिय-कृत रूपों को दिखलाती दिखलाती खड़ी रहती हैं । तत्पश्चात् वे देव उन अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करते हैं । शेष पूर्ववत् । जो शब्दपरिचारक देव हैं, उनके मन में इच्छा होती है कि हम अप्सराओं के साथ शब्दपरिचारणा करना चाहते हैं । उन देवों के द्वारा इस प्रकार विचार करने पर उसी प्रकार यावत् उत्तरक्रिय रूपों को प्रक्रिया करके जहाँ वे देव के पास देवियां जाती हैं । फिर वे उन देवों के न अति दूर न अति निकट रुककर सर्वोत्कृष्ट उच्च-नीच शब्दों का बार-बार उच्चारण करती हैं । इस प्रकार वे देव उन अप्सराओं के साथ शब्दपरिचारणा करते हैं । शेष पूर्ववत् । जो मनः परिचारक देव होते हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है हम अप्सराओं के साथ मन से परिचारणा करना चाहते हैं । उन देवों के द्वारा इस प्रकार अभिलाषा करने पर वे अप्सराएँ शीघ्र ही, वहीं रही हुई उत्कृष्ट उच्च-नीच मन को धारण करती हुई रहती हैं । वे देव उन अप्सराओं के साथ मन से परिचारणा करते हैं । शेष पूर्ववत् । [५९३] भगवन् ! इन कायपरिचारक यावत् मनः परिचारक और अपरिचारक देवों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम अपरिचारक देव हैं, उनसे संख्यातगुणे मनः परिचारक देव हैं, उनसे असंख्यातगुणे शब्दपरिचारकदेव हैं, उनसे रूपपारिचारक देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे स्पर्शपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं और उनसे कायपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं । पद- ३५ - "वेदना" [५९४] वेदनापद के सात द्वार है । शीत, द्रव्य, शरीर, साता, दुःखरूप वेदना, आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना तथा निदा और अनिदा वेदना । [५९५] साता और असाता वेदना सभी जीव वेदते हैं । इसी प्रकार सुख, दुःख और अदुःख - असुख वेदना भी वेदते हैं । विकलेन्द्रिय मानस वेदना से रहित हैं। शेष सभी जीव दोनों प्रकार की वेदना वेदते हैं । [५९६ ] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की है ? गौतम ! तीन प्रकार की,
SR No.009786
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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