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________________ जीवाजीवाभिगम-३ / द्वीप./१६८ यावत् प्रतिरूप हैं । इन के ऊपर अलग-अलग प्रासादावतंसक हैं । ये प्रासादावतंसक चार योजन के ऊंचे और दो योजन के लम्बे-चौड़े हैं । चारों तरफ से निकलती हुई और सब दिशाओं में फैलती हुई प्रभा से बँधे हुए हों ऐसे प्रतीत होते हैं । ये विविध प्रकार की मणियों और रत्नों की रचनाओं से विविध रूप वाले हैं वे वायु से कम्पित और विजय की सूचक वैजयन्ती नाम की पताका, सामान्य पताका और छत्रों पर छत्र से शोभित हैं, वे ऊंचे हैं, उनके शिखर आकाश को छू रहे हैं अथवा आसमान को लांघ रहे हैं । उनकी जालियों में रत्न जड़े हुए हैं, वे आवरण से बाहर निकली हुई वस्तु की तरह नये नये लगते हैं, उनके शिखर मणियों और सोने के हैं, विकसित शतपत्र, पुण्डरीक, तिलकरत्न और अर्धचन्द्र के चित्रों से चित्रित हैं, नाना प्रकार की मणियों की मालाओं से अलंकृत हैं, अन्दर और बाहर से श्लक्ष्ण हैं, तपनीय स्वर्ण की बालुका इनके आंगन में बिछी हुई है । स्पर्श अत्यन्त सुखदायक है । रूप लुभावना है । ये प्रासादावतंसक प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । ८७ उन प्रासादावतंसकों के ऊपरी भाग पद्मलता यावत् श्यामलता के चित्रों से चित्रित हैं और वे सर्वात्मना स्वर्ण के हैं । वे स्वच्छ, चिकने यावत् प्रतिरूप हैं । उन में अलग-अलग बहुत सम और रमणीय भूमिभाग है । वह मृदंग पर चढ़े हुए चर्म के समान समतल यावत् मणियों से उपशोभित है । उन समतल और रमणीय भूमिभागों के मध्यभाग में अलग-अलग मणिपीठिकाएँ हैं । वे एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधे योजन की मोटाई वाली हैं । सर्वरत्नमयी यावत् प्रतिरूप हैं । उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग सिंहासन हैं । उन सिंहासनों के सिंह रजतमय हैं, स्वर्ण के उनके पाये हैं, तपनीय स्वर्ण के पायों के अधः प्रदेश हैं, नाना मणियों के पायों के ऊपरी भाग हैं, जंबूनद स्वर्ण के उनके गात्र हैं, वज्रमय उनकी संधियां हैं, नाना मणियों से उनका मध्यभाग बुना गया है । वे सिंहासन ईहामृग, यावत् पद्मलता से चित्रित हैं, प्रधान - प्रधान विविध मणिरत्नों से उनके पादपीठ उपचित हैं, उन सिंहासनों पर मृदु स्पर्शवाले आस्तरक युक्त गद्दे जिनमें नवीन छालवाले मुलायम-मुलायम दर्भाग्र और अतिकोमल केसर भरे हैं, उन गद्दों पर बेलबूटों से युक्त सूती वस्त्र की चादर बिछी हुई है, उनके ऊपर धूल न लगे इसलिए रजस्त्राण लगाया हुआ है, वे रमणीय लाल वस्त्र से आच्छादित हैं, सुरम्य हैं, आजिनक, रुई, बूर वनस्पति, मक्खन और अर्कतूल के समान मुलायम स्पर्शवाले हैं । वे सिंहासन प्रासादीय, दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप हैं । उन सिंहासनों के ऊपर अलग-अलग विजयदूष्य हैं । वे विजयदृष्य सफेद हैं, शंख, कुंद, जलबिन्दु, क्षीरोदधि के जल को मथित करने से उठनेवाले फेनपुंज के समान हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन विजयदूष्यों के ठीक मध्यभाग में अलग अलग वज्रमय अंकुश हैं । उन में अलग अलग कुंभिका प्रमाण मोतियों की मालाएँ लटक रही हैं । वे कुंभिकाप्रमाण मुक्तामालाएँ अन्य उनसे आधी ऊँचाई वाली अर्धकुंभिका प्रमाण चार चार मोतियों की मालाओं से सब ओर से वेष्ठित हैं । उन मुक्तामालाओं में तपनीयस्वर्ण के लंबूसक हैं, वे आसपास से स्वर्ण के प्रतरक से मंडित हैं यावत् श्री से अतीव अतीव सुशोभित हैं । उन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगल कहे गये हैं, यथा - स्वस्तिक यावत् छत्र ।
SR No.009785
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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