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________________ राजप्रश्नीय-३२ २२९ आसनगृह, प्रेक्षागृह, मज्जनगृह, प्रसाधनगृह, गर्भगृह, मोहनगृह, शालागृह, जाली वाले गृह, कुसुमगृह, चित्रगृह, गंधर्वगृह, आदर्शगृह से सुशोभित हो रहे हैं । ये सभी गृह रत्नों से बने हुए अधिकाधिक निर्मल यावत् असाधारण मनोहर हैं । उन आलिगृहों यावत आदर्शगृहों में सर्वरत्नमय यावत् अतीव मनोहर हंसासन यावत् दिशा-स्वस्तिक आसन रखे हैं । उन वनखंडों में विभिन्न स्थानों पर बहुत से जातिमंडप, यूथिकामंडप, मल्लिकामंडप, नवमल्लिकामंडप, वासंतीमंडप, दधिवासुका मंडप, सूरिल्लि मंडप, नागरखेलमंडप, मृद्वीकामंडप, नागलतामंडप, अतिमुक्तक अप्फोया मंडप और मालुकामंडप बने हुए हैं । ये सभी मंडप अत्यन्त निर्मल, सर्वरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं ।। __ हे आयुष्मन् श्रमणो ! उन जातिमंडपों यावत् मालुकामंडपों में कितने ही हंसासन, क्रोचासन, गरुडासन, उन्नतासन, प्रणतासन, दीर्घासन, भद्रासन, पक्ष्यासन, मकारासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन, दिशा स्वस्तिकासन जैसे आकार वाले पृथ्वीशिलापट्टक तथा दूसरे भी बहुत से श्रेष्ठ शयनासन सदृश विशिष्ट आकार वाले पृथ्वीशिलापट्टक रखे हुए हैं । ये सभी पृथ्वीशिलापट्टक चर्मनिर्मित वस्त्र, रुई, बूर, नवनीत, तूल, सेमल या आक की रुई के स्पर्श जैसे सुकोमल, कमनीय, सर्वरत्नमय, निर्मल यावत् अतीव रमणीय हैं । उन हंसासनों आदि पर बहुत से सूर्याभविमानवासी देव और देवियाँ सुखपूर्वक बैठते हैं, सोते हैं, शरीर को लम्बा कर लेटते हैं, विश्राम करते हैं, ठहरते हैं, करवट लेते हैं, रमण करते हैं, केलिक्रीड़ा करते हैं, इच्छानुसार भोग-विलास भोगते हैं, मनोविनोद करते हैं, रासलीला करते हैं और रतिक्रीड़ा करते हैं । इस प्रकार वे अपने-अपने सुपुरुषार्थ से पूर्वोपार्जित शुभ, कल्याणमय शुभफलप्रद, मंगलरूप पुण्य कर्मों के कल्याणरूप फलविपाक का अनुभव करते हुए समय बिताते हैं । [३३] उन वनखण्डों के मध्यातिमध्य भाग में एक-एक प्रासादावतंसक हैं । ये प्रासादावतंसक पाँच सौ योजन ऊँचे और अढ़ाई सौ योजन चौड़े हैं और अपनी उज्ज्वल प्रभा से हँसते हुए से प्रतीत होते हैं । इनका भूमिभाग अतिसम एवं रमणीय है । इनके चंदेवा, सामानिक आदि देवों के भद्रासनों सहित सिंहासन आदि का वर्णन पूर्ववत् । इन प्रासादावतंसकों में महान् ऋद्धिशाली यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाले चार देव निवास करते हैं । अशोकदेव, सप्तपर्णदव, चंपकदेव और आम्रदेव । सूर्याभ नामक देवविमान के अंदर अत्यन्त समतल एवं अतीव रमणीय भूमिभाग है । शेष बहत से वैमानिक देव और देवियों के बैठने से विचरण करने तक का वर्णन पूर्ववत् । किन्तु यहाँ वनखंड का वर्णन छोड़ देना । उस अतीव सम रमणीय भूमिभाग के बीचों-बीच एक उपकारिकालयन बना हुआ है । जो एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है और उसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल है । एक योजन मोटाई है । यह विशाल लयन सर्वात्मना स्वर्ण का बना हुआ, निर्मल यावत् प्रतिरूप है । [३४] वह उपकारिकालयन सभी दिशा-विदिशाओं में एक पद्मववेदिका और एक वनखंड से घिरा हुआ है । वह पद्मवरवेदिका ऊँचाई में आधे योजन ऊँची, पांच सौ धनुष चौड़ी और उपकारिकालयन जितनी इसकी परिधि है । जैसे कि वज्ररत्नमय इसकी नेम हैं । रिष्टरत्नमय प्रतिष्ठान हैं । वैडूर्यरत्नमय स्तम्भ हैं । स्वर्ण और रजतमय फलक हैं । लोहिताक्ष रत्नों से बनी इसकी सूचियाँ हैं । विविध मणिरत्नमय इसका कलेवर है तथा विविध प्रकार की मणियों से बना हुआ है । अनेक प्रकार के मणि-रत्नो से इस पर चित्र बने हैं । नानामणि
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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