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________________ २२८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद भगवन् ! तो क्या उनकी ध्वनि इस प्रकार की है, जैसे कि भद्रशालवन, नन्दनवन, सौमनसवन अथवा पांडुक वन या हिमवन, मलय अथवा मंदरगिरि की गुफाओं में गये हुए एवं एक स्थान पर एकत्रित, समागत, बैठे हुए और अपने-अपने समूह के साथ उपस्थित, हर्षोल्लास पूर्वक क्रीड़ा करने में तत्पर, संगीत-नृत्य-नाटक-हासपरिहासप्रिय किन्नरों, किंपुरुषों, महोरगों अथवा गंधर्वो के गद्यमय-पद्यमय, कथनीय, गेय, पद-बद्ध, पादबद्ध, उत्क्षिप्त, पादान्त, मन्दमन्द घोलनात्मक, रोचितावसान-सुखान्त, मनमोहक सप्त स्वरों से समन्वित, षड्दोषों से रहित, ग्यारह अलंकारों और आठ गुणों से युक्त गुंजारव से दूर-दूर के कोनों क्षेत्रों को व्याप्त करने वाले राग-रागिनी से युक्त त्रि-स्थानकरण शुद्ध गीतों के मधुर बोल होते हैं ? हे गौतम ! हाँ, ऐसी ही मधुरातिमधुर ध्वनि उन मणियों और तृणों से निकलती है। [३२] उन वनखंडों में जहाँ-तहाँ स्थान-स्थान पर अनेक छोटी-छोटी चौरस वापिकायेंबावड़ियां, गोल पुष्करिणियां, दीर्घिकायें, गुंजालिकायें, फूलों से ढंकी हई सरोवरों की पंक्तियाँ, सर-सर पंक्तियाँ एवं कुपपंक्तियाँ बनी हई हैं । इन सभी वापिकाओं आदि का बाहरी भाग स्फटिमणिवत् अतीव निर्मल, स्निग्ध है । इनके तट रजतमय हैं और तटवर्ती भाग अत्यन्त सम-चौरस हैं । ये सभी जलाशय वज्ररत्न रूपी पाषाणों से बने हए हैं | इनके तलभाग तपनीय स्वर्ण से निर्मित हैं तथा उन पर शद्ध स्वर्ण और चांदी की बाल बिछी है । तटों के समीपवर्ती ऊँचे प्रदेश वैडूर्य और स्फटिक मणि-पटलों के बने हैं । इनमें उतरने और निकलने के स्थान सुखकारी हैं । घाटों पर अनेक प्रकार की मणियाँ जड़ी हुई हैं । चार कोनेवाली वापिकाओं और कुओं में अनुक्रम से नीचे-नीचे पानी अगाध एवं शीतल है तथा कमलपत्र, बिस और मृणालों से ढंका हुआ है । ये सभी जलाशय विकसित उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुंडरीक, शतपत्र तथा सहस्र-पत्र कमलों से सुशोभित हैं और उन पर परागपान के लिए भ्रमरसमूह गूंज रहे हैं । स्वच्छ-निर्मल जल से भरे हुए हैं । कल्लोल करते हुए मगर-मच्छ कचुआ आदि बेरोक-टोक इधर-उधर घूम फिर रहे हैं और अनेक प्रकार के पक्षिसमूहों के गमनागमन से सदा व्याप्त रहते हैं । ये सभी जलाशय एक-एक पद्मवरवेदिका और एक एक वनखंड से परिवेष्टित हैं । इन जलाशयों में से किसी में आसव, किसी में वारुणोदक, किसी में क्षीरोदक, किसी में घी, किसी में इक्षुरस और किसी-किसी में प्राकृतिक पानी जैसा पानी भरा है । ये सभी जलाशय मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । उन प्रत्येक वापिकाओं यावत् कूपपंक्तियों की चारों दिशाओं में तीन-तीन सुन्दर सोपान बने हुए हैं । उन त्रिसोपान प्रतिरूपकों की नेमें वज्ररत्नों की हैं इत्यादि तोरमों, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों पर्यन्त इनका वर्णन पूर्ववत् समझना । ___ उन छोटी-छोटी वापिकाओं यावत् कूपपंक्तियों के मध्यवर्ती प्रदेशों में बहुत से उत्पात पर्वत, नियतिपर्वत, जगतीपर्वत दारुपर्वत तथा कितने ही ऊंचे-नीचे, छोटे-बड़े दकमंडप, दकमंच, दकमालक, दकप्रासाद बने हुए हैं तथा कहीं-कहीं पर मनुष्यों और पक्षियों को झूलने के लिये झूले-हिंडोले पड़े हैं । ये सभी पर्वत आदि सर्वरत्नमय अत्यन्त निर्मल यावत् असाधारण रूप से सम्पन्न हैं । उन उत्पात पर्वतों, पक्षिहिंडोलों आदि पर सर्वरत्नमय, निर्मल यावत अतीव मनोहर अनेक हंसासन क्रोचासन, गरुडासान, उन्नतासन, प्रणतासन, दीर्घासन भद्रासन, पक्ष्यासन, मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन और दिशास्वस्तिक आसन रखे हुए हैं । उन वनखंडों में यथायोग्य स्थानों पर बहुत से आलिगृह, मालिगृह, कदलीगृह, लतागृह,
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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