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________________ औपपातिक - १६ १७१ सम्पन्न, लज्जा-सम्पन्न, लाघव- सम्पन्न - ओजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी - प्रशस्तभाषी । क्रोधजयी, मानजयी, मायाजयी, लोभजयी, इन्द्रियजयी, निद्राजयी, परिषहजयी, जीवन की इच्छा और मृत्यु के भय से रहित, व्रतप्रधान, गुणप्रधान, करणप्रधान, चारित्रप्रधान, निग्रहप्रधान, निश्चयप्रधान, आर्जवप्रधान, मार्दवप्रधान, लाघवप्रधान, क्रियादक्ष, क्षान्तिप्रधान, गुप्तिप्रधान, मुक्तिप्रधान, विद्याप्रधान, मन्त्रप्रधान, विद्याप्रधान, मन्त्रप्रधान, वेदप्रधान, ब्रह्मचर्यप्रधान, नयप्रधान, नियमप्रधान, सत्यप्रधान, शौचप्रधान, चारुवर्ण, लज्जा, तथा तपश्री, शोधि-शुद्ध, अनिदान, अल्पौत्सुक्य, थे । अपनी मनोवृत्तियों को संयम से बाहर नहीं जाने देते थे । अनुपम मनोवृत्तियुक्त थे, श्रमण जीवन के सम्यक् निर्वाह में संलग्न थे, दान्त, वीतराग प्रभु द्वारा प्रतिपादित प्रवचन - प्रमाणभूत मानकर विचरण करते थे । वे स्थविर भगवान् आत्मवाद के जानकार थे । दूसरों के सिद्धांतों के भी वेत्ता थे । कमलवन में क्रीडा आदि हेतु पुनः पुनः विचरण करते हाथी की ज्यों वे अपने सिद्धान्तों के पुनः पुनः अभ्यास या आवृत्ति के कारण उनसे सुपरिचित थे । वे अछिद्र निरन्तर प्रश्नोत्तर करते रहने में सक्षम थे । वे रत्नों की पिटारी के सदृश ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि दिव्य रत्नों से आपूर्ण थे । कुत्रिक सदृश वे अपने लब्धि के कारण सभी अभीप्सित करने में समर्थ थे। परवादिप्रमर्दन, बारह अंगों के ज्ञाता थे । समस्त गणि-पिटक के धारक, अक्षरों के सभी प्रकार के संयोग के जानकार, सब भाषाओं के अनुगामी थे । वे सर्वज्ञ न होते हुए भी सर्वज्ञ सदृश थे । वे सर्वज्ञों की तरह अवितथ, वास्तविक या सत्य प्ररूपणा करते हुए, संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे । 1 [१७] उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी बहुत से अनगार भगवान् थे । वे ईर्ष्या, भाषा, आहार आदि की गवेषणा, याचना, पात्र आदि के उठाने, इधरउधर रखने आदि तथा मल, मूत्र, खंखार, नाक आदि का मैल त्यागने में समित थे । वे मनोगुप्त, वचोगुप्त, कायगुप्त, गुप्त, गुप्तेन्द्रिय, गुप्त ब्रह्मचारी, अमम, अकिञ्चन, छिन्नग्रन्थ, छिन्नस्रोत, निरुपलेप, कांसे के पात्र में जैसे पानी नहीं लगता, उसी प्रकार स्नेह, आसक्ति आदि लगाव से रहित, शंख के समान निरंगण, जीव के समान अप्रतिहत, जात्य, विशोधित स्वर्ण के समान, दर्पणपट्ट के सदृश कपटरहित शुद्धभावयुक्त, कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय, कमलपत्र के समान निर्लेप, आकाश के सदृश निरालम्ब, निरपेक्ष, वायु की तरह निरालप, चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्यायुक्त, सूर्य के समान दीप्ततेज, समुद्र के समान गम्भीर, पक्षी की तरह सर्वथा विप्रमुक्त, अनियतवास, मेरु पर्वत समान अप्रकम्प, शरद् ऋतु के जल के समान शुद्ध हृदययुक्त, गेंडे के सींग के समान एकजात, एकमात्र आत्मनिष्ठ, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त, हाथी के सदृश शौण्डीर वृषभ समान धैर्यशील, सिंह के समान दुर्धर्ष, पृथ्वी के समान सभी स्पर्शो को सम भाव से सहने में सक्षम तथा घृत द्वारा भली भाँति हुत तप तेज से दीप्तिमान् थे । उन पूजनीय साधुओं को किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था । प्रतिबन्ध चार प्रकार का है :- द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से तथा भाव से । द्रव्य की अपेक्षा से सचित्त, अचित्त तथा मिश्रित द्रव्यों में; क्षेत्र की अपेक्षा से गाँव, नगर, खेत खलिहान, घर तथा आँगन में; काल की अपेक्षा से समय आवलिका, अयन एवं अन्य दीर्घकालिक संयोग में तथा भाव की अपेक्षा सेक्रोध, अहंकार, माया, लोभ, भय या हास्य में उनका कोई प्रतिबन्ध नहीं था । वे साधु भगवान् वर्षावास के चार महीने छोड़कर ग्रीष्म तथा हेमन्त दोनों के आठ महीनों तक किसी गाँव में एक रात तथा नगर में पाँच रात निवास करते थे । चन्दन समान वे अपना अपकार
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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