SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद तीसरी भावना शय्या-परिकर्मवर्जन है । पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए वृक्षों का छेदन नहीं करना चाहिए । वृक्षों के छेदन या भेदन से शय्या तैयार नहीं करवानी चाहिए । साधु जिस उपाश्रय में निवास करे, वहीं शय्या की गवेषणा करनी चाहिए । वहाँ की भूमि यदि विषम हो तो उसे सम न करे । पवनहीन स्थान को अधिक पवन वाला अथवा अधिक पवन वाले स्थान को पवनरहित बनाने के लिए उत्सुक न हो-ऐसा करने की अभिलाषा भी न करे, डाँस-मच्छर आदि के विषय में क्षुब्ध नहीं होना चाहिए और उन्हें हटाने के लिए धूम आदि नहीं करना चाहिए । इस प्रकार संयम की, संवर की, कषाय एवं इन्द्रियों के निग्रह, अतएव समाधि की प्रधानता वाला धैर्यवान् मुनि काय से इस व्रत का पालन करता हुआ निरन्तर आत्मा के ध्यान में निरत रहकर, समितियुक्त रह कर और एकाकी-रागद्वेष से रहित होकर धर्म का आचरण करे । इस प्रकार शय्यासमिति के योग से भावित अन्तरात्मावाला साधु सदा दुर्गति के कारणभूत पाप-कर्म से विरत होता है और दत्त-अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है । ___चौथी भावना अनुज्ञातभक्तादि है । सब साधुओं के लिए साधारण सम्मिलित आहारपानी आदि मिलने पर साधु को सम्यक् प्रकार से यतनापूर्वक खाना चाहिए । शाक और सूप की अधिकतावाला भोजन अधिक नहीं खाना चाहिए । तथा वेगपूर्वक, त्वरा के साथ, चंचलतापूर्वक और न विचारविहीन होकर खाना चाहिए । जो दूसरों को पीडाजनक हो ऐसा एवं सदोष नहीं खाना चाहिए । साधु को इस रीति से भोजन करना चाहिए, जिससे उसके तीसरे व्रत में बाधा उपस्थित न हो । यह अदत्तादानविरमणव्रत का सूक्ष्म नियम है । इस प्रकार सम्मिलत भोजन के लाभ में समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गतिहेतु पापकर्म से विरत होता है और दत्त एवं अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। पाँचवीं भावना साधर्मिक-विनय है । साधर्मिक के प्रति विनय का प्रयोग करना चाहिए । उपकार और तपस्या की पारणा में, वाचना और परिवर्तना में, भिक्षा में प्राप्त अन्न आदि अन्य साधुओं को देने में तथा उनसे लेने में और विस्मृत अथवा शंकित सूत्रार्थ सम्वन्धी पृच्छा करने में, उपाश्रय से बाहर निकलते और उसमें प्रवेश करते समय विनय का प्रयोग करना चाहिए । इनके अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य सैकड़ों कारणों में विनय का प्रयोग करना चाहिए । क्योंकि विनय भी अपने आप में तप है और तप भी धर्म है । अतएव विनय का आचरण करना चाहिए । विनय किनका करना चाहिए ? गुरुजनों का, साधुओं का और तप करने वाले तपस्वियों का । इस प्रकार विनय से युक्त अन्तःकरण वाला साधु अधिकरण से विरत तथा दत्त-अनुज्ञात अवग्रह में रुचिवाला होता है । शेष पूर्ववत् । इस प्रकार (आचरण करने) से यह तीसरा संवरद्वार समीचीन रूप से पालित और सुरक्षित होता है । इस प्रकार यावत् तीर्थंकर भगवान् द्वारा कथित है, सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट है और प्रशस्त है । शेष शब्दों का अर्थ पूर्ववत् समझना चाहिए । अध्ययन-८ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (अध्ययन-९ संवरद्वार-४) [३९] हे जम्बू ! अदत्तादानविरमण के अनन्तर ब्रह्मचर्य व्रत है । यह ब्रह्मचर्य अनशन
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy