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________________ प्रश्नव्याकरण-२/८/३८ १०१ अनेक प्रकार से करता है । वह अप्रीतिकारक गृहस्थ के कुल में प्रवेश नहीं करता और न अप्रीतिकारक के घर का आहार-पानी ग्रहण करता है । अप्रीतिकारक से पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, आसन, चोलपट्ट, मुखवस्त्रिका एवं पादपोंछन भी नहीं लेता है । वह दूसरों की निन्दा नहीं करता और न दूसरे के दोषों को ग्रहण करता है । जो दूसरे के नाम से कुछ भी ग्रहण नहीं करता और न किसी को दानादि धर्म से विमुख करता है, दूसरे के दान आदि सुकृत का अथवा धर्माचरण का अपलाप नहीं करता है, जो दानादि देकर और वैयावृत्य आदि करके पश्चात्ताप नहीं करता है, ऐसा आचार्य, उपाध्याय आदि के लिए संविभाग करनेवाला, संग्रह एवं उपकार करने में कुशल साधक ही इस अस्तेयव्रत का आराधक होता है ।। परकोय द्रव्य के हरण से विरमण रूप इस अस्तेयव्रत की परिरक्षा के लिए भगवान् तीर्थंकर देव ने यह प्रवचन समीचीन रूप से कहा है । यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी है, आगामी भव में शुभ फल प्रदान करनेवाला और भविष्यत् में कल्याणकारी है । यह प्रवचन शुद्ध है, न्याय-युक्ति-तर्क से संगत है, अकुटिल-मुक्ति का सरल मार्ग है, सर्वोत्तम है तथा समस्त दुःखों और पापों को निःशेष रूप से शान्त कर देने वाला है । परद्रव्यहरणविरमण (अदत्तादानत्याग) व्रत की पूरी तरह रक्षा करने के लिए पाँच भावनाएँ हैं, जो आगे कही जा रही हैं । पाँच भावनाओं में से प्रथम भावना इस प्रकार है-देवकुल, सभा, प्रपा, आवसथ, वृक्षमूल, आराम, कन्दरा, आकर, गिरिगुहा, कर्म, यानशाला, कुप्यशाला, मण्डप, शून्य घर, श्मशान, लयन तथा दुकान में और इसी प्रकार के अन्य स्थानों में जो भी सचित्त जल, मृत्तिका, बीज, दूब आदि हरित और चींटी-मकोड़े आदि त्रस जीवों से रहित हो, जिसे गृहस्थ ने अपने लिए बनवाया हो, प्रासुक हो, जो स्त्री, पशु एवं नपुंसक के संसर्ग से रहित हो और इस कारण जो प्रशस्त हो, ऐसे उपाश्रय में साधु को विहरना चाहिए साधुओं के निमित्त जिसके लिए हिंसा की जाए, ऐसे आधाकर्म की बहुलतावाले, आसिक्त, संमार्जित, उत्सिक्त, शोभित, छादन, दूमन, लिम्पन, अनुलिपन, ज्वलन, भाण्डों को इधर-उधर हटाए हुए स्थानउपाश्रय साधुओं के लिए वर्जनीय है । ऐसा स्थान शास्त्र द्वारा निषिद्ध है । इस प्रकार विविक्त स्थान में वसतिरूप समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला मुनि सदैव दुर्गति के कारण पापकर्म के करने और करवाने से निवृत्त होता-बचता है तथा दत्त-अनुज्ञात अवग्रह में रुचि वाला होता है । दूसरी भावना निर्दोष संस्तारकग्रहण संबंधी है । आराम, उद्यान, कानन और वन आदि स्थानों में जो कुछ भी इक्कड जाति का घास तथा कठिन, जन्तुक, परा, मेरा, कूर्च, कुश, डाभ, पलाल, मूयक, वल्वज, पुष्प, फल, त्वचा, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ और शर्करा आदि द्रव्य संस्तारक रूप उपधि के लिए अथवा संस्तारक एवं उपधि के लिए ग्रहण करता है तो इन उपाश्रय के भीतर की ग्राह्य वस्तुओं को दाता द्वारा दिये बिना ग्रहण करना नहीं कल्पता। इस प्रकार अवग्रहसमिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गति के कारणभूत पाप-कर्म के करने और कराने से निवृत्त होता-बचता है और दत्त-अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है ।
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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