SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१/४१ बहुत लाखों योजन, बहुत करोड़ों योजन और बहुत कोड़ाकोड़ी योजन लांधकर, ऊपर जाकर सौधर्म ईशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोक लान्तक महाशुक्र सहस्त्रार आनत प्राणत आरण और अच्युत देवलोकों तथा तीन सौ अठारह नवग्रैवेयक के विमानावासों को लांध कर वह विजय नामक अनुत्तर महाविमान में देव के रूप में उत्पन्न हुआ है । उस विजय नामक अनुत्तर विमान में किन्हीं-किन्हीं देवों की तेतीस सागरोपम की स्थिति कही है । उसमें मेघ नामक देव की भी तेतीस सागरोपम की स्थिति है । गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया-भगवन् ! वह मेघ देव देवलोक से आयु का क्षय करके, आयुकर्म की स्थिति का वेदन द्वारा क्षय करके तथा भव का क्षय करके तथा देवभव के शरीर का त्याग करके अथवा देवलोक से च्यवन करके किस गति में जाएगा ? किस स्थान पर उत्पन्न होगा? भगवान् ने उत्तर दिया-हे गौतम ! महाविदेह वर्ष में सिद्धि प्राप्त करेगा-समस्त मनोरथों को सम्पन्न करेगा, केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को जानेगा, समस्त कर्मों से मुक्त होगा और परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अर्थात् कर्मजनित समस्त विकारों से रहित हो जाने के कारण स्वस्थ होगा और समस्त दुःखों का अन्त करेगा । श्री सुधर्मास्वामी अपने प्रधान शिष्य जम्बू स्वामी कहते हैं-इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने, जो प्रवचन की आदि करनेवाले, तीर्थ की संस्थापना करने वाले यावत् मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, आप्त गुरु को चाहिए कि अविनीत शिष्य को उपालंभ दे, इस प्रयोजन से प्रथम ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है । ऐसा मैं कहता हूँअध्ययन-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (अध्ययन-२-संघाट) [४२] श्री जम्बू स्वामी, श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करते हैं-'भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने द्वितीय ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उसकाल उस समय मेंजब राजगृह नामक नगर था । (वर्णन) उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था । वह महान् हिमवन्त पर्वत के समान था, इत्यादि उस राजगृह नगर से बाहर ईशान कोण में-गुणशील नामक चैत्य था । (वर्णन) उस गुणशील चैत्य से न बहुत दूर न अधिक समीप, एक भाग में गिरा हुआ जीर्ण उद्यान था । उस उद्यान का देवकुल विनष्ट हो चुका था । उस के द्वारों आदि के तोरण और दूसरे गृह भग्न हो गये थे । नाना प्रकार के गुच्छों, गुल्मों, अशोक आदि की लताओं, ककड़ी आदि की बेलों तथा आम्र आदिके वृक्षों से वह उद्यान व्याप्त था । सैकड़ों सर्पो आदि के कारण वह भय उत्पन्न करता था । उस जीर्ण उद्यान के बहुमध्यदेश भाग मेंबीचों-बीच एक टूटा-फूटा बड़ा कूप भी था । उस भग्न कूप से न अधिक दूर न अधिक समीप, एक जगह एक बड़ा मालुकाकच्छ था । अंजन के समान कृष्ण और कृष्ण-प्रभा वाला था । रमणीय और महामेघों के समूह जैसा था । वह बहुत-से वृक्षों, गुच्छों गुल्मों, लताओं, बेलों, तृणों, कुशों और लूंठों से व्याप्त था और चारों ओर से आच्छादित था । वह अन्दर से पोला था और बाहर से गंभीर था, अनेक सैकड़ों हिंसक पशुओं अथवा सों के कारण शंकाजनक था । [४३] राजगृह नगर में धन्य नामक सार्थवाह था । वह समृद्धिशाली था, तेजस्वी था,
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy