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________________ ९४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद सम्पूर्ण प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान करता हँ तथा सब प्रकार के अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चारों प्रकार के आहार का आजीवन प्रत्याख्यान करता हूँ। और यह शरीर जो इष्ट है, कान्त है और प्रिय है, यावत् विविध प्रकार के रोग, शूलादिक आतंक, बाईस परीषह और उपसर्ग स्पर्श न करें, ऐसे रक्षा की है, इस शरीर का भी मैं अन्तिम श्वासोच्छ्वास पर्यन्त परित्याग करता हूँ ।' इस प्रकार कहकर संलेखना को अंगीकार करके, भक्तपान का त्याग करके, पादपोपगमन समाधिमरण अंगीकार कर मृत्यु की भी कामना न करते हुए मेघ मुनि विचरने लगे । तब वे स्थविर भगवन्त ग्लानिरहित होकर मेघ अनगार की वैयावृत्य करने लगे । तत्पश्चात् वह मेघ अनगार श्रमण भगवान् महाबीर के तथारूप स्थविरों के सन्निकट सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, लगभग बारह वर्ष तक चारित्र पर्याय का पालन करके, एस मास की संलेखना के द्वारा आत्मा को क्षीण करके, अनशन से साठ भक्त छेद कर, आलोचना प्रतिक्रमण करके, माया, मिथ्यात्व और निदान शल्यों की हटाकर समाधि को प्राप्त होकर अनुक्रम से कालधर्म को प्राप्त हए । मेघ अनगार के साथ गये हए स्थविर भगवंतों ने मेघ अनगार को क्रमशः कालगत देखा । देखकर परिनिर्वाणनिमित्तक कायोत्सर्ग करके मेघ मुनि के उपकरण ग्रहण किये और विपुल पर्वत से धीरे-धीरे नीचे उतरे । जहाँ गुणशील चैत्य था और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे वहीं पहुँचे । श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार बोले - आप देवानुप्रिय के अन्तेवासी मेघ अनगार स्वभाव से भद्र और यावत् विनीत थे । वह देवानुप्रिय से अनुमति लेकर गौतम आदि साधुओं और साध्वियों को खमा कर हमारे साथ विपुल पर्वत पर धीरे-धीरे आरूढ हुए । स्वयं ही सघन मेघ के समान कृष्णवण पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन किया । प्रतिलेखन करके भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर दिया और अनुक्रम से कालधर्म को प्राप्त हुए । हे देवानुप्रिय ! यह हैं मेघ अनगार के उपकरण । [४१] 'भगवन् !' इस प्रकार कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दन-वमस्कार करके इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय के अन्तेवासी मेघ अनगार थे । भगवन् ! यह मेघ अनगार काल-मास में काल करके किस गति में गये ? और किस जगह उत्पन्न हुए ? 'हे गौतम !' इस प्रकार कह कर श्रमण भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम से कहा-हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी मेघ नामक अनगार प्रकृति से भद्र यावत् विनीत ता । उसने तथारूप स्थविरों से सामायिक से प्रारम्भ करके ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । अध्ययन करके बारह भिक्षु-प्रतिमाओं का और गुणरत्नसंवत्सर नामक तप का काय से स्पर्श करके यावत् कीर्तन करके, मेरी आज्ञा लेकर गौतम आदि स्थविरों को खमाया । खमाकर तथारूप यावत् स्थविरों के साथ विपुल पर्वत पर आरोहण किया । दर्भ का संथारा बिछाया । फिर दर्भ के संथारे पर स्थित होकर स्वयं ही पांच महाव्रतों का उच्चारण किया, बारह वर्ष तक साधुत्व-पर्याय का पालन करके एक मास की संलेखना से अपने शरीर को क्षीण करके, साठ भक्त अनशन से छेदन करके, आलोचना-प्रतिक्रमण करके, शल्यों को निर्मूल करके समाधि को प्राप्त होकर, काल-मास में मृत्यु को प्राप्त करके, ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिषचक्र से बहुत योजन, बहुत सैकड़ों योजन, बहुत हजारों योजन,
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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