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________________ १०२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद पिटक को और उत्तम सुगंधित जल से परिपूर्ण घट को ग्रहण किया । राजगृह के मध्यमार्ग में हदोरक जहाँ कारागार था और जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ पहुँचा । भोजन का पिटक रख दिया । उसे लांछन और मुद्रा से रहित किया । फिर भोजन के पात्र लिए, उन्हें धोया और फिर हाथ धोने का पानी दिया । धन्य सार्थवाह को वह विपुल अशन, पान, खादिन और स्वादिम भोजन परोसा । उस समय विजय चोर ने धन्य सार्थवाह से कहा - 'देवानुप्रिय ! तुम मुझे इस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन में से संविभाग करो-।' तब धन्य सार्थवाह ने उत्तर में विजय चौर से कहा - हे विजय ! भले ही मैं यह विपुल अशन, पान, खादिन और स्वादिम काकों और कुत्तों को दे दूंगा अथवा उकरड़े में फैंक दूंगा परन्तु तुझ पुत्रघातक, पुत्रहन्ता, शत्रु, वैरी, प्रतिकूल आचरण करनेवाले एवं प्रत्यमित्र-को इस अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य में से संविभाग नहीं करूँगा। इसके बाद धन्य सार्थवाह ने उप विपल अशन. पान. खाद्य और स्वाद्य का आहार किया । आहार करके पंथक को लौटा दिया-खाना कर दिया । पंथक दास चेटक ने भोजन का वह पिटक लिया और लेकर जिस ओर से आया था, इसी ओर लोट गया । विपुल अशन, पान, खादिन और स्वादिम भोजन करने के कारण धन्य सार्थवाह को मल-मूत्र की बाधा उत्पन्न हुई । तब धन्य सार्थवाह ने विजय चोर से कहा-विजय ! चलो, एकान्त में चलें, जिससे मैं मलमूत्र का त्याग कर सकूँ । तब विजय चोर ने धन्य सार्थवाह से कहा-देवानुप्रिय ! तुमने विपुल अशन, पान, खादिन और स्वादिम का आहार किया है, अतएव तुम्हें मल और मूत्र की बाधा उत्पन्न हुई है । मैं तो इन बहुत चाबुकों के प्रहारों से यावत् लता के प्रहारों से तथा प्यास और भूख से पीड़ित हो रहा हूँ। मुझे मल-मूत्र की बाधा नहीं है । जाने की इच्छा हो तो तुम्ही एकान्त में जाकर मल-मूत्र का त्याग करो । धन्य सार्थवाह विजय चोर के इस प्रकार कहने पर मौन रह गया । इसके बाद थोड़ी देर में धन्य सार्थवाह उच्चार-प्रस्त्रवण की अति तीव्र बाधा से पीड़ित होता हुआ विजय चोर से फिर कहने लगा-विजय, चलो, यावत् एकान्त में चलें । तब विजय चोर ने धन्य सार्थवाह से कहा-देवानुप्रिय ! यदि तुम उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग करो अर्थात् मुझे हिस्सा देना स्वीकार करो तो मैं तुम्हारे साथ एकान्त में चलूँ । धन्य सार्थवाह ने विजय से कहा-मैं तुम्हें उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग करूँगा-तत्पश्चात विजय ने धन्य सार्थवाह के इस अर्थ को स्वीकार किया । फिर विजय, धन्य सार्थवाह के साथ एकान्त में गया । धन्य सार्थवाह ने मल-मूत्र का परित्याग किया । जल से स्वच्छ और परम शुचि हुआ । लौटकर अपने स्थान पर आ गया । तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने दूसरे दिन सूर्य के देदीप्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करके पंथक के साथ भेजा । यावत् पंथक ने धन्य को जिमाया। तब धन्य सार्थवाह ने विजय चोर को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से भाग दिया । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने पंथक दास चेटक को खाना कर दिया । पंथक भोजन-पिटक लेकर कारागार से बाहर निकला । निकलकर राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर जहाँ अपना घर था और जहाँ भद्रा भार्या थी वहाँ पहुँचा । वहाँ पहुंचकर उसने भद्रा सार्थवाही से कहा-देवानुप्रिय धन्य सार्थवाह ने तुम्हारे पुत्र के घातक यावत् दुश्मन को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से हिस्सा दिया है ।
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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