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________________ ज्ञाताधर्मकथा - १/-/२/५० १०१ निकलने के मार्गों यावत दरवों, पीछे खिड़कियों, छेड़ियों, किले की छोटी खिड़कियों, मोरियों, रास्ते मिले की जगहों, रासेत अलग-अलग होने के स्थानों, जुआ के अखाड़ों, मदिरापान के स्थानों, वेश्या के घरों, चोरों के घरों, श्रृंगाटकों त्रिक, चौकों, अनेक मार्ग मिलने के स्थानों, नागदेव के गृहों, भूतों के गृहों, यक्षगृहों, सभास्थानों, प्याउओं आदि में तलाश करते-करते राजगृह नगर से बाहर निकले । जहां जीर्ण उद्यान था और जहाँ भग्न कूप था, वहां आये । आकर उस कूप में निष्प्राण, निश्चेष्ट एवं निर्जीव देवदत्त का शरीर देखा, देख कर 'हाय, हाय' 'अहो अकार्य !' इस प्रकार कह कर उन्होंने देवदत्त कुमार को उस भग्न कूप से बाहर निकाला और धन्य सार्थवाह के हाथों में सौंप दिया । तत्पश्चात् वे नगरक्षक विजय चोर के पैरों के निशानों का अनुसरण करते हुए मालुका-कच्छ में पहुंचे । उसके भीतर प्रविष्ट हुए । विजय चोर को पंचों की साक्षीपूर्वक, चोरी के माल के साथ, गर्दन में बाँधा और जीवित पकड़ लिया । फिर अस्थि, मुष्टि से घुटनों और कोहनियों आदि पर प्रहार करके शरीर को भग्न और मथित कर दिया । उसकी गर्दन और दोनों पीठ की तरफ बाँध दिए । फिर बालक देवदत्त के आभरण कब्जे में किये । तत्पश्चात् विजय चोर को गर्दन से बाँधा और मालुकाकच्छ से बाहर निकले । राजगृह नगर आये । राजगृह नगर में प्रविष्ट हुए और नगर के त्रिक, चतुष्क, चत्वर एवं महापथ आदि मार्गों के कोड़ों के प्रहार, छड़ियों के प्रहार, छिव के प्रहार करते-करते और उसके ऊपर राख धूल और कचरा डालते हुए तेज आवाज से घोषित करते हुए इस प्रकार कहने लगे 'हे देवानुप्रिय ! यह विजय नाम चोर है । यह गीध समान मांसभक्षी, बालघातक है। हे देवानुप्रिय ! कोई राजा, राजपुत्र अथवा राजा का अमात्य इसके लिए अपराधी नहीं है - कोई निष्कारण ही इसे दंड नहीं दे रहा है । इस विषय में इसके अपने किये कुकर्म ही अपराधी हैं।' इस प्रकार कहकर जहाँ चार कशाला थी, वहाँ पहुँचे, वहाँ पहुँच कर उस बेड़ियों से जकड़ दिया । भोजन-पानी बंद कर दिया । तीनों संध्याकालों में चाबुकों, छड़ियों और कंबा आदि के प्रहार करने लगे । तत्वश्चात् धन्य सार्थवाह ने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिवार के साथ रोते-रोते, आक्रंदन करते यावत् विलाप करते बालक देवदत्त के शरीर का महान् ऋद्धि सत्कार के समूल के साथ नीहरण किया । अनेक लौकिक मृतककृत्य किये । तत्पश्चात् कुछ समय व्यतीत हो जाने पर वह उस शोक से रहित हो गया । [५१] तत्पश्चात् किसी समय धन्य सार्थवाह को चुगलखोरों ने छोटा-सा राजकीय अपराध लगा दिया । तब नगररक्षकों ने धन्य सार्थवाह को गिरफ्तार कर लिया । कारागार में गये । कारागार में प्रवेश कराया और विजय चोर के साथ एक ही बेड़ी में बाँध दिया । भद्रा भार्याने अगले दिन यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिन और स्वादिम भोजन तैयार दिया । भोजन तैयार करके भोजन रखने का पिटक ठीक-ठाक किया और उसमें भोजन के पात्र रख दिये । फिर उस पिटक को लांछित और मुद्रित कर दिया । सुगंधित जल से परिपूर्ण छोटा-सा घड़ा तैयार किया । फिर पंथक दास चेटक को आवाज दी और कहा- 'हे देवानुप्रिय ! तू जा । यह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम लेकर कारागार में धन्य सार्थवाह के पास ले जा ।' तत्पश्चात् पंथक ने भद्रा सार्थवाही के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट होकर उस भोजन
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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