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________________ भगवती-११/-/९/५०६ श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन किया । फिर एक सौ आठ सोने के कलशों से, यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से, समस्त वृद्धि के साथ यावत् बाजों के महानिनाद के साथ राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया । तदनन्तर अत्यन्त कोमल सुगन्धित गन्धकाषायवस्त्र से उसके शरीर को पोंछा। फिर सरस गोशीर्षचन्दन का लेप किया; इत्यादि, जिस प्रकार जमालि को अलंकार से विभूषित करने का वर्णन है, उसी प्रकार शिवभद्र कुमार को भी यावत् कल्पवृक्ष के समान अलंकृत और विभूषित किया । इसके पश्चात् हाथ जोड़कर यावत् शिवभद्रकुमार को जयविजय शब्दों से बधाया और औपपातिक सूत्र में वर्णित कोणिक राजा के प्रकरणानुसार-इष्ट, कान्त एवं प्रिय शब्दों द्वारा आशीर्वाद दिया, यावत् कहा कि तुम परम आयुष्मान् हो और इष्ट जनों से युक्त होकर हस्तिनापुर नगर तथा अन्य बहुत-से ग्राम, आकर, नगर आदि के, यावत् परिवार, राज्य और राष्ट्र आदि के स्वामित्व का उपभोग करते हुए विचरो; इत्यादि कह कर जय-जय शब्द का प्रयोग किया। अब वह शिवभद्र कुमार राजा बन गया । वह महाहिमवान् पर्वत के समान राजाओं में प्रधान होकर विचरण करने लगा। तदनन्तर किसी समय शिव राजा ने प्रशस्त तिथि, करण, नक्षत्र और दिवस एवं शुभ मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया और मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन, परिजन, राजाओं एवं क्षत्रियों आदि को आमंत्रित किया । तत्पश्चात् स्वयं ने स्नानादि किया, यावत् शरीर पर (चंदनादि का लेप किया ।) (फिर) भोजन के समय भोजनमण्डप में उत्तम सुखासन पर बैठा और उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, यावत् परिजन, राजाओं और क्षत्रियों के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोजन किया । फिर तामली तापस के अनुसार, यावत् उनका सत्कार-सम्मान किया । तत्पश्चात् उन मित्र, ज्ञातिजन आदि सभी की तथा शिवभद्र राजा की अनुमति लेकर लोढी-लोहकटाह, कुड़छी आदि बहुत से तापसोचित भण्डोपकरण ग्रहण किये और गंगातट निवासी जो वानप्रस्थ तापस थे, वहां जा कर, यावत् दिशाप्रोक्षक तापसों के पास मुण्डित होकर दिशाप्रोक्षक-तापस के रूप में प्रव्रजित हो गया । प्रव्रज्या ग्रहण करते ही शिवराजर्षि ने इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया आज से जीवन पर्यन्त मुझे बेले-बेले करते हुए विचरना कल्पनीय है; इत्यादि पूर्ववत् यावत् अभिग्रह धारण करके प्रथम छ? तप अंगीकार करके विचरने लगा। तत्पश्चात् वह शिवराजर्षि प्रथम छट्ठ (बेले) के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरे, फिर उन्होंने वल्कलवस्त्र पहिने और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए । वहाँ से किढीण (बांस का पात्र) और कावड़ को लेकर पूर्वदिशा का पूजन किया । हे पूर्वदिशा के (लोकपाल) सोम महाराज ! प्रस्थान में प्रस्थित हुए मुझ शिवराजर्षि की रक्षा करें, और यहाँ (पूर्वदिशा में) जो भी कन्द, मूल, छाल, पत्ते, पुष्प, फल, बीज और हरी वनस्पति हैं, उन्हें लेने की अनुज्ञा दें; यों कह कर शिवराजर्षि ने पूर्वदिशा का अवलोकन किया और वहाँ जो भी कन्द, मूल, यावत् हरी वनस्पति मिली, उसे ग्रहण की और कावड़ में लगी हुई बांस की छबड़ी में भर ली । फिर दर्भ, कुश, समिधा और वृक्ष की शाखा को मोड़ कर तोड़े हुए पत्ते लिए और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए । कावड़ सहित छबड़ी नीचे रखी, फिर वेदिका का प्रमार्जन किया, उसे लीप कर शुद्ध किया । तत्पश्चात् डाभ और कलश हाथ में ले कर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए । गंगा महानदी में अवगाहन किया और उसके जल से देह शुद्ध की । फिर जलक्रीड़ा की, पानी अपने
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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