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________________ भगवती-१८/-/२/७२७ १६५ और आलोचना प्रतिक्रमण आदि करके आत्मशुद्धि की, यावत् काल के समय कालधर्म को प्राप्त कर वह सौधर्मकल्प देवलोक में, सौधर्मावतंसक विमान में रही हुई उपपात सभा में देवशय्या में यावत् शक्र देवेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ । इसी से कहा गया था-'शक्र देवेन्द्र देवराज अभीअभी उत्पन्न हुआ है ।' शेष वर्णन गंगदत्त के समान यावत्-'वह सभी दुःखों का अन्त करेगा,' (तक) विशेष यह है कि उसकी स्थिति दो सागरोपम की है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है । | शतक-१८ उद्देशक-३ | [७२८] उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था । वहाँ गुणशील नामक चैत्य था । यावत् परिषद् वन्दना करके वापिस लौट गई । उस काल एवं उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी यावत् प्रकृतिभद्र माकन्दिपुत्र नामक अनगार ने, मण्डितपुत्र अनगार के समान यावत् पर्युपासना करते हुए पूछा-भगवन् ! क्या कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिकजीव, कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिकजीवों में से मरकर अन्तरहित मनुष्य शरीर प्राप्त करता है ? फिर केवलज्ञान उपार्जित करता है ? तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है ? हाँ, माकन्दिकपुत्र ! वह यावत् सब दुःखों का अन्त करता है । भगवन् ! क्या कापोतलेश्यी अप्कायिकजीव कापोतलेश्यी अप्कायिकजीवों में से मर कर अन्तररहित मनुष्यशरीर प्राप्त करता है ? फिर केवलज्ञान प्राप्त करके यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? हाँ, माकन्दिकपुत्र ! वह यावत् सब दुःखों का अन्त करता है । भगवन् ! कापोतलेश्यी वनस्पतिकायिकजीव के सम्बन्ध में भी वही प्रश्न है ? हाँ, माकन्दिकपुत्र ! वह भी यावत् सब दुःखों का अन्त करता है । "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कहकर माकन्दिकपुत्र अनगार श्रमण भगवान् महावीर को यावत् वन्दना-नमस्कार करके जहाँ श्रमण निर्ग्रन्थ थे, वहाँ उनके पास आए और उनसे इस प्रकार कहने लगे-आर्यो ! कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव पूर्वोक्त प्रकार से यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, इसी प्रकार, हे आर्यो ! कापोतलेश्यी अप्कायिक जीव भी यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, और इसी प्रकार कापोतलेश्यी वनस्पतिकायिक जीव भी, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है । तदनन्तर उन श्रमण निर्ग्रन्थों ने माकन्दिकपुत्र अनगार की इस प्रकार की प्ररूपणा, व्याख्या यावत् मान्यता पर श्रद्धा नहीं की, न ही उसे मान्य किया । वे इस मान्यता के प्रति अश्रद्धालु बन कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आए । फिर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा'भगवन् ! माकन्दीपुत्र अनगार ने हमसे कहा यावत् प्ररूपणा की कि कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीव, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है । हे भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ?' श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमण निर्ग्रन्थों से इस प्रकार कहा-'आर्यो ! माकन्दिकपत्र अनगार ने जो तुमसे कहा है, यावत प्ररूपणा की है, यह कथन सत्य है । हे आर्यो ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ । इसी प्रकार कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिकजीव, कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिकों में से मर कर, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है । नीललेश्यी एवं कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक भी यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है । पृथ्वीकायिक के समान अप्कायिक और वनस्पतिकायिक भी, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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