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________________ १६४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद मुझे इष्ट, अभीष्ट और रुचिकर लगा । हे देवानुप्रियो ! उस धर्म को सुनने के पश्चात् मैं संसार के भय से उद्विग्न हो गया हूँ और यावत् मैं तीर्थंकर के पास प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ । तो हे देवानुप्रियो ! तुम सब क्या करोगे? क्या प्रवृत्ति करने का विचार है ? तुम्हारे हृदय में क्या इष्ट है? और तुम्हारी क्या करने की क्षमता (शक्ति) है ?' यह सुन कर उन एक हजार आठ व्यापारी मित्रों ने कार्तिक सेठ से इस प्रकार कहा यदि आप संसारभय से उद्विग्न होकर गृहत्याग कर यावत् प्रव्रजित होंगे, तो फिर, देवानुप्रिय ! हमारे लिए दूसरा कौन-सा आलम्बन है ? या कौन-सा आधार है ? अथवा कौन-सी प्रतिबद्धता रह जाती है ? अतएव, हे देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं, तथा जन्ममरण के चक्र से भयभीत हो चुके हैं । हम भी आप देवानुप्रिय के साथ अगारवास का त्याग कर अर्हन्त मुनिसुव्रतस्वामी के पास मुण्डित होकर अनगार-दीक्षा ग्रहण करेंगे । व्यापारी-मित्रों का अभिमत जान कर कार्तिक श्रेष्ठी ने उन १००८ व्यापारी-मित्रों से इस प्रकार कहा-यावत् अपने-अपने घर जाओ, ज्येष्ठपुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप दो । तब एक हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका में बैठ कर कालक्षेप किये बिना मेरे पास आओ ।'. कार्तिक सेठ का यह कथन उन्हो ने विनयपूर्वक स्वीकार किया और अपने-अपने घर आए । फिर उन्होंने विपुल अशनादि तैयार कराया और अपने मित्र-ज्ञातिजन आदि को आमन्त्रित किया । यावत् उन मित्र-ज्ञातिजनादि के समक्ष अपने ज्येष्ठपुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपा । फिर उन मित्र-ज्ञाति-स्वजन यावत् ज्येष्ठपुत्र से अनुमति प्राप्त की । फिर हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका में बैठे । मार्ग में मित्र ज्ञाति, यावत् ज्येष्ठपुत्र के द्वारा अनुगमन किये जाते हुए यावत् वाद्यों के निनादपूर्वक अविलम्ब कार्तिक सेठ के समीप उपस्थित हुए । तदनन्तर कार्तिक श्रेष्ठी ने गंगदत्त के समान विपुल अशनादि आहार तैयार करवाया, यावत् मित्र ज्ञाति यावत् परिवार, ज्येष्ठपुत्र एवं एक हजार आठ व्यापारीगण के साथ उनके आगेआगे समग्र ऋद्धिसहित यावत् वाद्य-निनाद-पूर्वक हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुआ, गंगदत्त के समान गृहत्याग करके वह भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के पास पहुँचा यावत् इस प्रकार बोला-भगवन् ! यह लोक चारों ओर से जल रहा है, भन्ते! यह संसार अतीव प्रज्वलित हो रहा है; यावत् परलोक में अनुगामी होगा । अतः मैं एक हजार आठ वणिकों सहित आप स्वयं के द्वारा प्रव्रजित होना और यावत् आप से धर्म का उपदेश-निर्देश प्राप्त करना चाहता हूँ । इस पर श्री मुनिसुव्रत तीर्थंकर ने एक हजार आठ वणिक्-मित्रों सहित कार्तिक श्रेष्ठी को स्वयं प्रव्रज्या प्रदान की और यावत् धर्म का उपदेश-निर्देश किया कि-देवानुप्रियो ! अब तुम्हें इस प्रकार चलना चाहिए, इस प्रकार खड़े रहना चाहिए आदि, यावत् इस प्रकार संयम का पालन करना चाहिए । एक हजार आठ व्यापारी मित्रों सहित कार्तिक सेठ ने भगवान् मुनिसुव्रत अर्हन्त के इस धार्मिक उपदेश को सम्यक् रूप से स्वीकार किया तथा उन की आज्ञा के अनुसार सम्यक् रूप से चलने लगा, यावत् संयम का पालन करने लगा । इस प्रकार एक हजार आठ वणिकों के साथ वह कार्तिक सेठ अनगार बना, तथा ईर्यासमिति आदि समितियों से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बना । . इसके पश्चात् उस कार्तिक अनगार ने तथारूप स्थविरों के पास सामायिक से लेकर चौदह पूर्वो तक का अध्ययन किया । साथ ही बहुत से चतुर्थ, छट्ठ, अट्ठम आदि तपश्चरण से आत्मा को भावित करते हुए पूरे बारह वर्ष तक श्रामण्य-पर्याय का पालन किया । अन्त में, उसने एक मास की संल्लेखना द्वारा अपने शरीर की झूषित किया, अनशन से साठ भक्त का छेदन किया
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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