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________________ १४४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो; परन्तु धर्मकार्य में विलम्ब मत करो । अर्हत् मुनिसुव्रतस्वामी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर वह गंगदत्त गाथापति हृष्ट-तुष्ट हुआ सहस्त्राम्रवन उद्यान से निकला, और हस्तिनापुर नगर में जहाँ अपना घर था, वहाँ आया । घर आकार उसने विपुल अशन-पान यावत् तैयार करवाया । फिर अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन आदि को आमंत्रित किया । फिर पूरण सेठ के समान अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब (-कार्य) में स्थापित किया । तत्पश्चात् अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन आदि तथा ज्येष्ठ पुत्र से अनुमति ले कर हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका पर चढ़ा और अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन यावत् परिवार एवं ज्येष्ठ पुत्र द्वारा अनुगमन किया जाता हुआ, सर्वकृद्धि के साथ यावत् वाद्यों के आघोषपूर्वक हस्तिनापुर नगर के मध्य में हो कर सहस्राम्रवन उद्यान के निकट आया । छत्र आदि तीर्थंकर भगवान् के अतिशय देख कर यावत् उदायन राजा के समान यावत् स्वयमेव आभूषण उतारे; फिर स्वयमेव पंचमुष्टिक लोच किया । इसके पश्चात् तीर्थंकर मुनिसुव्रतस्वामी के पास जा कर उदायन राजा के समान प्रव्रज्या ग्रहण की, यावत् उसी के समान (गंगदत्त अनगार ने) ग्यारह अंगों का अध्ययन किया यावत् एक मास की संलेखना से साठ-भक्त अनशन का छेदन किया और फिर आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधि को प्राप्त हो कर काल के अवसर में काल करके महाशुक्रकल्प में महासामान्य नामक विमान की उपपातसभा की देवशय्या में यावत् गंगदत्त देव के रूप में उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् तत्काल उत्पन्न वह गंगदत्त देव पंचविध पर्याप्तियों से पर्याप्त बना । यथा-आहारपर्याप्ति यावत् भाषा-मनःपर्याप्ति । इस प्रकार हे गौतम ! गंगदत्त देव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि यावत् पूर्वोक्त प्रकार से उपलब्ध, प्राप्त यावत् अभिमुख की है । | शतक-१६ उद्देशक-६ । [६७७] भगवन् ! स्वप्न-दर्शन कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! पांच प्रकार का । यथा यथातथ्य-स्वप्नदर्शन, प्रतान-स्वप्नदर्शन, चिन्ता-स्वप्नदर्शन, तद्विपरीत-स्वप्नदर्शन और अव्यक्त-स्वप्नदर्शन । भगवन् ! सोता हुआ प्राणी स्वप्न देखता है, जागता हुआ देखता है, अथवा सुप्तजागृत प्राणी स्वप्न देखता है ? गौतम ! सोता हुआ प्राणी स्वप्न नहीं देखता, और न जागता हुआ प्राणी स्वप्न देखता है, किन्तु सुप्त-जागृत प्राणी स्वप्न देखता है ।। भगवन् ! जीव सुप्त हैं, जागृत हैं अथवा सुप्त-जागृत हैं ? गौतम ! जीव सुप्त भी हैं, जागृत भी हैं और सुप्त-जागृत भी हैं । भगवन् ! नैरयिक सुप्त हैं, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । गौतम ! नैरयिक सुप्त हैं, जागृत नहीं हैं और न वे सुप्त-जागृत हैं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक कहना । भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव सुप्त हैं, इत्यादि प्रश्न । गौतम ! वे सुप्त हैं, जागृत नहीं हैं, सुप्त-जागृत भी हैं । मनुष्यों के सम्बन्ध में सामान्य जीवों के समान (तीनों) जानना चाहिए । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिक जीवों के समान (सुप्त) जानना चाहिए । [६७८] भगवन् ! संवृत जीव स्वप्न देखता है, असंवृत जीव स्वप्न देखता है अथवा संवृता-संवृत जीव स्वप्न देखता है ? गौतम ! तीनो ही । संवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह यथातथ्य देखता है । असंवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह सत्य भी हो सकता है और असत्य भी हो सकता है । संवृता-संवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह भी असंवृत के समान होता है ।
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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