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________________ भगवती-३/-/१/१६३ बालतपस्वी के मृत शरीर की हीलना, निन्दा और आक्रोशना की जा रही है, यावत् उस शब को मनचाहे ढंग से इधर-उधर घसीटा या खींचा जा रहा है । अतः इस प्रकार देखकर वे वैमानिक देव-देवीगण शीघ्र ही क्रोध से भड़क उठे यावत् क्रोधानल से दांत पीसते हुए, जहाँ देवेन्द्र देवराज ईशान था, वहाँ पहुँचे । ईशानेन्द्र के पास पहुँचकर दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर अंजलि करके 'जय हो, विजय हो' इत्यादि शब्दों से बधाया । फिर वे बोले - 'हे देवानुप्रिय ! बलिचंचा राजधानी निवासी बहुत से असुरकुमार देव और देवीगण आप देवानुप्रिय को कालधर्म प्राप्त हुए एवं ईशानकल्प में इन्द्ररूप में उत्पन्न हुए देखकर अत्यन्त कोपायमान हुए यावत् आपके मृतशरीर को उन्होंने मनचाहा आड़ा टेढ़ा खींच घसीटकर एकान्त में डाल दिया । तत्पश्चात् वे जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस लौट गए ।' उस समय देवेन्द्र देवराज ईशान ईशानकल्पवासी बहुत-से वैमानिक देवों और देवियों से यह बात सुनकर और मन में विचार कर शीघ्र ही क्रोध से आगबबूला हो उठा, यावत् क्रोध से तिलमिलाता हुआ, वहीं देवशय्या स्थित ईशानेन्द्र ने ललाट पर तीन सल डालकर एवं भ्रुकुटि तान कर बलिचंचा राजधानी को, नीचे ठीक सामने, चारों दिशाओं से बराबर सम्मुख, और चारों विदिशाओं से भी एकदम सम्मुख होकर एक-टक दृष्टि से देखा । इस प्रकार कुपित दृष्टि से बचिंचा राजधानी को देखने से वह उस दिव्यप्रभाव से जलते हुए अंगारों के - कणों के समान, तपी हुई राख के समान, तपतपाती बालू जैसी या तपे समान, गर्म हुए तवे सरीखी, और साक्षात् अग्रि की राशि जैसी हो गई - जलने लगी । ९१ जब बलिचंचा राजधानी में रहने वाले बहुत से असुरकुमार देवों और देवियों ने उस बलिचंचा राजधानी को अंगारों सरीखी यावत् साक्षात् अग्नि की लपटों जैसी देखी तो वे अत्यन्त भयभीत हुए, भयत्रस्त होकर कांपने लगे, उनका आनन्दरस सूख गया वे उद्विग्न हो गए, और भय के मारे चारों ओर इधर-उधर भाग-दौड़ करने लगे । वे एक दूसरे के शरीर से चिपटने लगे अथवा एक दूसरे के शरीर की ओट में छिपने लगे । तब बलिचंचा- राजधानी के बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने यह जानकर कि देवेन्द्र देवराज ईशान के परिकुपित होने से (हमारी राजधानी इस प्रकार हो गई है); वे सब असुरकुमार देवगण, ईशानेन्द्र की उस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवप्रभाव, और दिव्य तेजोलेश्या को सहन न करते हुए देवेन्द्र देवराज ईशान के चारों दिशाओं में और चारों विदिशाओं में ठीक सामने खड़े होकर ऊपर की ओर समुख करके दसों नख इकट्ठे हों, इस तरह से दोनों हाथ जोड़कर शिरसावर्तयुक्त मस्तक पर अंजलि करके ईशानेन्द्र को जय-विजय - शब्दों से अभिनन्दन करके वे इस प्रकार बोले- 'अहो ! आप देवानुप्रिय ने दिव्य देव ऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है, और अभिमुख कर ली है ! हमने आपके द्वारा उपलब्ध, प्राप्त और सम्मुख की हुई दिव्य देवऋद्धि को, यावत् देवप्रभाव को प्रत्यक्ष देख लिया है । अतः हे देवानुप्रिय ! हम आप से क्षमा मांगते हैं । आप देवानुप्रिय हमें क्षमा करें । आप देवानुप्रिय हमें क्षमा करने योग्य हैं । फिर कभी इस प्रकार नहीं करेंगे ।' इस प्रकार निवेदन करके उन्होंने ईशानेन्द्र से अपने अपराध के लिए विनयपूर्वक अच्छी तरह बार-बार क्षमा मांगी । अब जबकि बलिचंचा-राजधानी - निवासी उन बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने देवेन्द्र देवराज ईशान से अपने अपराध के लिए सम्यक् विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना कर
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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