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________________ भगवती -१/-/३/४३ ३३ यहाँ भी पूर्वोक्त समस्त परिपाटी पूर्ववत् समझनी चाहिए । विशेषता यह है कि उदीर्ण को वेदता है, अनुदीर्ण को नहीं वेदता । इसी प्रकार यावत् पुरुषकार पराक्रम से वेदता है, अनुत्थानादि से नहीं वेदता है । 'भगवन् ! क्या जीव अपने आप से ही निर्जरा करता है और गर्हा करता है ?" गौतम ! यहाँ भी समस्त परिपाटी 'पूर्ववत्' समझनी चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की निर्जरा करता है । इसी प्रकार यावत् पुरुषकार - पराक्रम से निर्जरा और गर्हा करता है । इसलिए उत्थान यावत् पुरुषकार - पराक्रम हैं । [४४] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? हाँ, गौतम वेदन करते हैं । सामान्य ( औधिक) जीवों के सम्बन्ध में जैसे आलापक कहे थे, वैसे ही नैरयिकों के सम्बन्ध में यावत् स्तनितकुमारों तक समझ लेने चाहिए । भगवन् ? क्या पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? हाँ, गौतम ! वे वेदन करते हैं । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव किस प्रकार कांक्षामोहनीयकर्म का वेदन करते हैं ? गौतम ! उन जीवों को ऐसा तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन नहीं होता कि 'हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं; किन्तु वे उसका वेदन अवश्य करते हैं । भगवन् ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिन भगवन्तों द्वारा प्ररूपित है ? हाँ, गौतम ! यह सब पहले के समान जानना चाहिए । इसी प्रकार चतुरिन्द्रियजीवों तक जानना चाहिए । जैसे सामान्य जीवों के विषय में कहा है, वैसे ही पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों से लेकर यावत् वैमानिक तक कहना । [४५] भगवन् ! क्या श्रमणनिर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते ? हा गौतम ! करते है । भगवन् ! श्रमणनिर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन किस प्रकार करते हैं ? गौतम ! उन-उन कारणों से ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रावचनिकान्तर कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तरों के द्वारा शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर श्रमणनिर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं । भगववू ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिन भगवन्तों ने प्ररूपित किया है । हाँ, गौतम ! वही सत्य है, निःशंक है, जो जिन भगवन्तों द्वारा प्ररूपित है, यावत् पुरुषकारपराक्रम से निर्जरा होती है; हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! भगवन् ! यही सत्य है ! शतक - १ उद्देशक - ४ [४६] भगवन् ! कर्म-प्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! आठ । यहाँ 'कर्मप्रकृति' नामक तेईसवें पद का ( यावत्) अनुभाग तक सम्पूर्ण जान लेना । [ ४७ ] कितनी कर्मप्रकृतियाँ हैं ? जीव किस प्रकार कर्म बांधता है ? कितने स्थानों से कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? कितनी प्रकृतियों का वेदन करता है ? किस प्रकृति का कितने प्रकार का अनुभाग (रस) है ? [४८] भगवन् ! कृतमोहनीयकर्म जब उदीर्ण हो, तब जीव उपस्थान - परलोक की क्रिया के लिए उद्यम करता है ? हाँ, गौतम ! करता है । भगवन् ! क्या जीव वीर्यता - वीर्य 33
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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