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________________ स्थान-४/१/२५५ ६३ से भी सत्य होते हैं । कितने द्रव्य से सत्य और भाव से असत्य होते हैं । इत्यादि चार भंग! इसी तरह परिणत-यावत्-पराक्रम के चार भंग जानने चाहिये । चार प्रकार के वस्त्र कहे गये हैं, यथा-कितने स्वभाव से भी पवित्र और संस्कार से भी पवित्र, कितनेक स्वभाव से पवित्र परन्तु संस्कार से अपवित्र इत्यादि चार भंग । इसी तरह चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं, यथा-शरीर से भी पवित्र और स्वभाव से भी पवित्र । इत्यादि चार भंग । शुद्ध वस्त्र के चार भंग पहले कहे हैं उसी प्रकार शुचिवस्त्रके भी चार भंग समझने चाहिए । [२५६] चार प्रकार के कोर कहे गये हैं,यथा-आम्रफल के कोर, ताड़ के फल के कोर, वल्लीफल के कोर, मेंढे के सिंग के समान फलवाली वनस्पति के कोर । इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं यथा-आम्रफल के कोर के समान, तालफल के कोर के समान, वल्ली फल के कोर के समान, मेंढेके विषाण के तुल्य वनस्पति के कोर के समान । . [२५७] चार प्रकार के धुन कहे गये हैं,यथा-लकड़ी के बाहर की त्वचा को खानेवाले, छाल खानेवाले, लकड़ी खानेवाले, लकड़ी का सारभाग खाने वाले । इसी प्रकार चार प्रकार के भिक्षु कहे गये हैं, यथा-त्वचा खानेवाले धुन के समान-यावत्-सार खाने वाले धुन के समान । त्वचा खानेवाले धुन के जैसे भिक्षु का तप सार खाने वाले धुन के जैसा है । छालखाने वाले धुन के जैसे भिक्षु का तप काष्ठ खानेवाले धुन के जैसा हैं । काष्ठ खानेवाले धुन के जैसे भिक्षु का तप छाल खानेवाले धुन के जैसा हैं । सार खाने वाले धुन के जैसा भिक्षु का तप त्वचा खानेवाले धुन के जैसा हैं । [२५८] तृण वनस्पतिकायिक चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा-अग्रबीज, मूलबीजपर्वबीज और स्कंधबीज । [२५९] चार कारणों से नरक में नवीन उत्पन्न नैरयिक मनुष्य लोक में शीघ्र आने की इच्छा करता हैं परन्तु आने में समर्थ नहीं होता हैं, यथा- नरकलोक में नवीन उत्पन्न हुआ नैरयिक वहां होने वाली प्रबल वेदना का अनुभव करता हुआ मनुष्यलोक शीघ्र आने की इच्छा करता हैं किन्तु शीघ्र आने में समर्थ नहीं होता हैं, नरकपालों के द्वारा पुनःपुनः आक्रान्त होने पर मनुष्यलोक में जल्दी आने की इच्छा करता हैं परन्तु आने में समर्थ नहीं होता हैं , नरकवेदनीय कर्म के क्षीण न होने से, वेदना के वेदित न होने से, निर्जरित न होने से इच्छा करने पर भी मनुष्यलोक में आने में समर्थ नहीं होता हैं,इसी तरह नरकायुकर्म के क्षीण न होने से-यावत-आने में समर्थ नहीं होता हैं । [२६०] साध्वि को चार साड़ियां धारण करने और पहनने के लिए कल्पती हैं, यथाएक दो हाथ विस्तारवाली, दो तीन हाथ विस्तारवाली, एक चार हाथ विस्तारवाली, [२६१] ध्यान चार प्रकार के हैं - आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्ल घ्यान । आर्तध्यान चार प्रकार का कहा गया हैं,यथा-अमनोज्ञ 'अनिष्ट' वस्तु की प्राप्ति होने पर उसे दूर करने की चिन्ता करना । मनोज्ञवस्तु की प्राप्ति होनेपर वह दूर न हो उसकी चिन्ता करना । बीमारी होने पर उसे दूर करने की चिन्ता करना । सेवित काम भोगों से युक्त होने पर उनके चले न जाने की चिन्ता करना । आर्तध्यान के चार लक्षण हैं यथा-आक्रन्दन करना, शोक करना, आंसु गिराना, विलाप करना ।
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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