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________________ स्थान-३/४/२२८ ५९ ऋद्धि तीन प्रकार की हैं, यथा-सचित्त, अचित्त और मिश्र । [२२९] तीन प्रकार के गौख हैं, ऋद्धि-गौख, रस-गौरव और साता-गौरव । [२३०] तीन प्रकार के करण (अनुष्ठान) कहे गये हैं, यथा-धार्मिक करण, अधार्मिक करण और मिश्र करण । [२३१] भगवान् ने तीन प्रकार का धर्म कहा हैं, यथा-सु-अधीत ‘अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त करना' सु-ध्यात 'अच्छी तरह भावनादी का चिन्तन करना' सु-तपस्थित 'तप का अनुष्ठान अच्छी तरह करना । जब अच्छी तरह अध्ययन होता हैं तो अच्छी तरह ध्यान और चिन्तन हो सकता हैं, जब अच्छी तरह ध्यान और चिन्तन होता हैं तब श्रेष्ठ तप का आराधन होता हैं । इसी प्रकार-सु-अधीत, सु-ध्यान और सु-तपयिस्त रुप सु-आख्यात धर्म भगवान ने प्ररूपित किया हैं। [२३२] व्यावृत्ति 'हिंसादि से निवृत्ति' तीन प्रकार की कही गई है, यथा-ज्ञानयुक्त की जाने वाली व्यावृत्ति, अज्ञान से की जानेवाली व्यावृत्ति, संशय से की जानेवाले व्यावृत्ति । इसी तरह पदार्थों में आसक्ति और पदार्थों का ग्रहण भी तीन तीन प्रकार का हैं | [२३३] तीन प्रकार के अन्त कहे गये हैं, यथा-लोकान्त, वेदान्त और समयान्त । लौकिक अर्थशास्त्र आदि से निर्णय करना लोकान्त हैं, वेदों के अनुसार निर्णय करना वेदान्त हैं, जैन सिद्धान्तों के अनुसार 'निर्णय' करना समयान्त हैं । [२३४] जिन तीन प्रकार के कहे गये हैं, अवधिज्ञानी जिन, मनःपर्यवज्ञानी जिन और केवलज्ञानी जिन । तीन केवली कहे गये हैं, यथा-अवधिज्ञानी केवली, मनःपर्यायज्ञानी केवली और केवलज्ञानी केवली । तीन अर्हन्त कहे गये हैं, यथा-अवधिज्ञानी अर्हन्त, मनःपर्यवज्ञानी अर्हन्त और केवलज्ञानी अर्हन्त । [२३५] तीन लेश्याएं दुर्गन्ध वाली कही गई हैं, यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या । तीन लेश्याएं सुगंधवाली कही गई हैं, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या शुक्ललेश्या । इसी तरह दुर्गति में ले जानेवाली, सुगति में ले जानेवाली लेश्या, अशुभ, शुभ, अमनोज्ञ, मनोज्ञ, अविशुद्ध, विशुद्ध, क्रमशः अप्रशस्त, प्रशस्त, शीतोष्ण और स्न्धि, रूक्ष समझना। [२३६] मरण तीन प्रकार का कहा गया हैं, यथा-बालमरण, पण्डितमरण और बालपण्डितमरण । बालमरण तीन प्रकार का कहा गया हैं, स्थितलेश्य संक्लिष्ट लेश्य, पर्यवजात लेश्य पण्डितमरण तीन प्रकार का हैं, स्थितलेश्य, असंक्लिष्टलेश्य, अपर्यवजात लेश्य । बालपण्डितमरण तीन प्रकार का हैं, स्थितलेश्य, असंक्लिष्टलेश्यऔर अपर्यवजात लेश्य। [२३७] निश्चय नहीं करनेवाले 'शंकाशील' के लिए तीन स्थान अहित कर, अशुभरूप, अयुक्त, अकल्याण कारी और अशुभानुबन्धी होते हैं, यथा- कोई मुण्डित होकर गृहस्थाश्रम से निकलकर अनागार धर्म में दीक्षित होने पर निग्रन्थ प्रवचन में शंका करता हैं, अन्यमत की इच्छा करता हैं, क्रिया के फल के प्रति शंकाशील होता हैं, द्वैधीभाव ‘ऐसा है या नहीं हैं ऐसी बुद्धि को प्राप्त करता हैं, और कलुषित भाव वाला होता हैं और इस प्रकार वह निग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा नहीं रखता हैं, विश्वास नहीं रखता हैं,रुचि नहीं रखता है तो उसे परीषह होते हैं और वे उसे पराजित कर देते हैं । परीषहों को पराजित नहीं कर सकता । कोई व्यक्ति मुण्डित होकर
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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