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________________ ५८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद प्रत्यनीक, शैक्ष 'नवदीक्षित' प्रत्यनीक, __ भाव की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं, यथा-ज्ञान-प्रत्यनीक, दर्शन-प्रत्यनीक, चारित्र-प्रत्यनीक । श्रुत की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं,यथा-सूत्र-प्रत्यनीक, अर्थप्रत्यनीक, तदुभय-प्रत्यनीक । [२२३] तीन अंग पिता के 'वीर्य से निष्पन्न' कहे गये हैं,यथा-हड्डी, हड्डी की मिजा और केश-मूंछ, रोम नख । तीन अंग माताके 'आर्तव से निष्पन्न' कहे गये हैं, यथा-मांस, रक्त और कपाल का भेजा, अथवा-भेजे का फिप्फिस 'मांस विशेष' । [२२४] तीन कारणों से श्रमण निग्रन्थ महानिर्जरा वाला और महापर्यवसान होता हैं, यथा-कब मैं अल्प या अधिक श्रुत का अध्ययन करुंगा, कब मैं एकलविहार प्रतिमा को अंगीकार करके विचरुंगा, कब मैं अन्तिम मारणान्तिक संलेखना से भूषित होकर आहार पानी का त्याग करके पादपोपगमन संथारा अंगीकार करके मृत्यु की इच्छा नहीं करता हुआ विचरुंगा । इन तीन कारणों से तीनों भावना प्रकट करता हुआ अथवा चिन्तन पर्यालोचत करता हुआ निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता हैं । तीन कारणों से श्रमणोपासक महानिर्जरा और महापर्यवसान करनेवाला होता हैं, यथाकब में अल्प या बहुत परिग्रह को छोडूंगा, कब मैं मुंडित होकर गृहस्थ से अनगार धर्म में दीक्षित होऊंगा, कब मैं अन्तिम मारणान्तिक संलेखना भूसणा से भूषित होकर, अहार-पानी का त्याग करके पादपोदमन संथारा करके मृत्यु की इच्छा नहीं करता हुआ विचरूँगा ।इस प्रकार शुद्ध मन से, शुद्ध वचन से और शुद्ध काया से पर्यालोचन करता हुआ या उक्त तीनों भावना प्रकट करता हुआ श्रमणोपासक महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता हैं । [२२५] तीन प्रकार से पुद्गल की गति में प्रतिघात होना कहा गया हैं, यथा-एक परमाणु-पुद्गल का दूसरै परमाणु-पुद्गल से टकराने के कारण गति में प्रतिघात होता हैं, रूक्ष होने से गति मैं प्रतिघात होता हैं, लोकान्त में गति का प्रतिघात होता हैं । [२२६] चक्षुष्मान् ‘नेत्रवाले' तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-एक नेत्रवाले, दो नेत्रवाले और तीन नेत्रवाले । छद्मस्थ-श्रुतादि ज्ञान-रहित मनुष्य एक नेत्रवाले हैं देव दो नेत्रवाले हैं, तथारुप श्रमण तीन नेत्र वाले है । [२२७] तीन प्रकार का अभिसमागम 'विशिष्ट ज्ञान' हैं, यथा-ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् । जब किसी तथारूप श्रमण-माहण को विशिष्ट ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होता हैं तब वह सर्व प्रथम ऊर्ध्वलोक तो जानता हैं तदनन्तर तिर्यक् लोक को, उसके पश्चात् अधोलोक को जानता है । हे श्रमण आयुष्मन् ! अधोलोक का ज्ञान कठिनाई से होता है [२२८] ऋद्धि तीन प्रकार की कही गई हैं, यथा-देवर्द्धि, राजर्द्धि और गणके अधिपति आचार्यकी ऋद्धि । देव की ऋद्धि तीन प्रकार की कही हैं, यथा-विमानों की ऋद्धि, वैक्रिय की ऋद्धि, परिचार ‘विषयभोग' की ऋद्धि । अथवा-देवर्द्धि तीन प्रकार की हैं यथा-सचित्त, अचित्त और मिश्र । राजा की ऋद्धि तीन प्रकार की हैं, यथा-राजा की अतियान ऋद्धि, राजा कि नियान ऋद्धि. राजा की सेना. वाहन कोष. कोष्ठागार आदि की ऋद्धि । अथवा-राजा की ऋद्धि तीन प्रकार की हैं, यथा-सचित्त, और मिश्र ऋद्धि । गणी (आचार्य) की ऋद्धि तीन प्रकार की है, यथा-ज्ञान की ऋद्धि, दर्शन की ऋद्धि और चारित्र की ऋद्धि । अथवा-गणी की
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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