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________________ स्थान-३/१/१४३ ४३ को शतपाक, सहस्रपाक तेल से मर्दन करके सुगन्धित उबटन लगाकर तीन प्रकार के (गन्धोदक उष्णोदक, शीतोदक) जल से स्नान करा कर, सर्व अलकारों से विभूषित करके मनोज्ञ, हांडी में पकाया हुआ, शुद्ध अठारह प्रकार के व्यंजनो से युक्त भोजन जिमाकर यावज्जीवन कावड़ में बिठाकर कंधे पर लेकर फिरता रहे तो भी उपकार का बदला नहीं चुका सकता हैं किन्तु वह माता-पिता को केवलि प्ररूपित धर्म बताकर, समझाकर और प्ररूपणा कर उसमें स्थापित करे तो वह उन माता-पिता के उपकार का सुचारु रूप से बदला चुका सकता हैं । कोई महा ऋद्धिवाला पुरुष किसी दरिद्र को धन आदि देकर उन्नत बनाए तदनन्तर वह दरिद्र धनादि से समृद्ध बनने पर उस सेठ के असमक्ष अथवा समक्ष ही विपुल भोग सामग्री से युक्त होकर विचरता हो, इसके बाद वह ऋद्धिवाला पुरुष कदाचित् (दैवयोग से) दरिद्र बन कर उस (पूर्व के) दद्धि के पास शीघ्र आवे उस समय वह (पहले का) दद्धि (वर्तमान को श्रीमन्त) अपने इस स्वामी को सर्वस्व देता हुआ भी उसके उपकार का बदला नहीं चुका सकता हैं किन्तु वह अपने स्वामी को केवलिप्ररूपित धर्म बता कर समझाकर और प्ररूपणा कर उसमें स्थापित करता हैं तो इससे वह अपने स्वामी के उपकार का भलीभांति बदला चुका सकता हैं। कोई व्यक्ति तथारूप श्रमण-माहन के पास से एक भी आर्य (श्रेष्ठ) धार्मिक सुवचन सुनकर-समझकर मृत्यु के समय मर कर किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ । तदनन्तकर वह देव उन धर्माचार्य को दुर्भिक्ष वाले देश से सुभिक्ष वाले देश में ले जाकर रख दे, जंगल में भटकते हुए को जंगल से बाहर ले जाकर रख दे, दीर्घ-कालीन व्याधि-ग्रस्त को रोग मुक्त करदे तो भी वह धर्माचार्य के उपकार का बदला नहीं चुका सकता हैं किन्तु वह केवलि प्ररूपित धर्म से (संयोगवश) भ्रष्ट हुए धर्माचार्य को पुनः केवलि-प्ररूपित धर्म बताकर-यावत्उसमें स्थापित कर देता है तो वह उन धर्माचार्य के उपकार का बदला चुका सकता हैं । [१४४] तीन स्थानों (गुणों) से युक्त अनगार अनादि-अनन्त दीर्घ-मार्ग वाले चार गतिरूप संसार-कान्तार को पार कर लेता है वे इस प्रकार हैं, यथा- निदान (भोग ऋद्धि आदि की इच्छा) नहीं करने से, सम्यक्दर्शन युक्त होने से, समाधि रहने से । अथवा उपधानतपश्चर्या पूर्वक श्रुत का अभ्यास करने से ।। [१४५] तीन प्रकार की अवसर्पिणी कही गई हैं, यथा-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य इस प्रकार छहों आरक का कथन करना चाहिए-यावत्-दुषमदुषमा ।। तीन प्रकार की उत्सर्पिणी कही गई है, यथा-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । इस प्रकार छ आरक समझने चाहिये-यावत्-सुषम सुषमा । [१४६] तीन कारणों से अच्छिन पुद्गल अपने स्थान से चलित होते हैं, यथा- आहार के रूप में जीव के द्वारा गृह्यमान होने पर पुद्गल अपने स्थान से चलित होते हैं, वैक्रिय किये जाने पर उसके वशवर्ति होकर पुद्गल स्वस्थान से चलित होते हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर संक्रमण किये जाने पर (ले जाये जाने पर) पुद्गल स्वस्थान से चलित होते हैं । ___ उपधि तीन प्रकार की कही गई हैं, यथा- कर्मोपधि, शरीरोपधि और बाह्यभाण्डोपकरणोपधि । असुरकुमारों के तीन प्रकार की उपधि कहनी चाहिये । यों एकन्द्रिय और नारक को छोड़ कर वैमानिक पर्यन्त तीन प्रकार की उपधि समझनी चाहिये । अथवा तीन
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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