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________________ ३६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद वर्ष क्षेत्र वर्षधर पर्वत, कूट, कूटागार, विजय राजधानी ये सब जीवाजीवात्मक होने से जीव और अजीव कहे जाते हैं । छाया, आतप, ज्योत्स्ना, अन्धकार, अवमान, उन्मान, अतियान गृह उद्यानगृह, अवलिम्ब, सणिप्पवाय ये सब जीव और अजीव कहे जाते हैं, (जीव और अजीव से व्याप्त होने के कारण अभेदनय की अपेक्षा से जीव या अजीव कहे जाते हैं) । [१००] दो राशियाँ कही गयी है, यथा-जीव-राशि और अजीव-राशि । बंध दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-राग-बंध और द्वेष-बंध । जीव दो प्रकार से पाप कर्म बांधते हैं, यथा-राग से और द्वेष से जीव दो प्रकार से पाप कर्मों की उदीरणा करते हैं, आभ्युपगमिक (स्वेच्छा से) वेदना से, औपक्रमिक (कर्मोदय वश) वेदना से | इसी तरह दो प्रकार से जीव कर्मों का वेदन एवं निर्जरा करते हैं, यथा- आभ्युपगमिक और औपक्रमिक वेदना से ।। [१०१] दो प्रकार से आत्मा शरीर का स्पर्श करके बाहर निकलती है, यथा- देश सेशरीर के अमुक भाग अथवा अमुक अवयव का स्पर्श करके आत्मा बाहर निकलती है । सर्व से-सम्पूर्ण शरीर का स्पर्श करके आत्मा बाहर निकलती है । इसी तरह स्फुरण करके स्फोटन करके, संकोचन करके शरीर से अलग होकर आत्मा बाहर निकलती है । [१०२] दो प्रकार से आत्मा को केवलि-प्ररूपित धर्म सुनने के लिए मिलता है, यथाकर्मों के क्षय से अथवा उपशम से । इसी प्रकार-यावत्-दो कारणों से जीव को मनः पर्याय ज्ञान उत्पन्न होता है, यथा-(आवरणीय कर्म के) क्षय से अथवा उपशम से । [१०३] औपमिक काल दो प्रकार का है, पल्योपम और सागरोपम, पल्योपम का स्वरूप क्या है ? पल्योपम का स्वरूप इस प्रकार है । [१०४] एक योजन विस्तार वाले पल्य में एक दिन के उगे हुए बाल निरन्तर एवं निविड़ रुप से ठूस ठूस कर भर दिए जाय और [१०५] सौ सौ वर्ष में एक एक बाल निकालने से जितने वर्षों में वह पल्य खाली हो जाय उतने वर्षों के काल को एक पल्योपम समझना चाहिए । [१०६] ऐसे दस क्रोडा क्रोडी पल्योपम का एक सागरोपम होता है । [१०७] क्रोध दो प्रकार का कहा गया है, यथा-आत्मप्रतिष्ठित और परप्रतिष्ठित । 'अपने आप पर होने वाला या अपने द्वारा उत्पन्न किया हुआ क्रोध आत्म प्रतिष्ठित है ।' 'दुसरे पर होनेवाला या उसके द्वारा उत्पन्न किया हुआ क्रोध पर प्रतिष्ठित है । इसी प्रकार नारकयावत्-वैमानिकों को उक्त दो प्रकार मान माया-यावत्-मिथ्यादर्शनशल्य भी दो प्रकार का समझना चाहिए । [१०८] संसार समापन्नक 'संसारी' जीव दो प्रकार कहे गये हैं, यथा-त्रस और स्थावर, सर्व जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सिद्ध और असिद्ध । सर्व जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सेन्द्रिय और अनिन्द्रिय । इस प्रकार सशरीरी और अशरीरी पर्यन्त निम्न गाथा से समझना चाहिए । यथा [१०९] सिद्ध, सेन्द्रिय, सकाय, सयोगी, सवेदी, सकषायी, सलेश्य, ज्ञानी, साकारोपयुक्त, आहारक, भाषक, चरम, सशरीरी ये और प्रत्येक का प्रतिपक्ष ऐसे दो-दो प्रकार समझना।
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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