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________________ २५४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद हैं, प्रभा-युक्त हैं, मरीचियों (किरणों) से युक्त हैं, उद्योत (शीतल प्रकाश) से युक्त हैं, मन को प्रसन्न करने वाले हैं । दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं । जिस प्रकार से असुरकुमारों के भवनों का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार नागकुमार आदि शेष भवनवासी देवों के भवनों का भी वर्णन जहां जैसा घटित और उपयुक्त हो, वैसा करना चाहिए । तथा ऊपर कही गई गाथाओं से जिसके जितने भवन बताये गये हैं, उनका वैसा ही वर्णन करना चाहिए । [२३९] असुरकुमारों के चौसठ लाख भवन हैं । नागकुमारों के चौरासी लाख भवन हैं । सुपर्णकुमारों के बहत्तर लाख भवन हैं । वायुकुमारों के छ्यान3 लाख भवन हैं ।। [२४०] द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार, अग्निकुमार इन छहों युगलों के बहत्तर लाख भवन हैं । [२४१] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के आवास कितने कहे गये हैं ? गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात आवास कहे गये हैं । इसी प्रकार जलकायिक जीवों से लेकर यावत् मनुष्यों तक के जानना चाहिए । भगवन् ! वानव्यन्तरों के आवास कितने कहे गये हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय कांड के एक सौ योजन ऊपर से अवगाहन कर और एक सौ योजन नीचे के भाग को छोड़ कर मध्यके आठ सौ योजनों में वानव्यन्तर देवों के तिरछे फैले हुए असंख्यात लाख भौमेयक नगरावास कहे गये हैं । वे भौमेयक नगर बाहर गोल और भीतर चौकोर हैं । इस प्रकार जैसा भवनवासी देवों के भवनों का वर्णन किया गया है, वैसा ही वर्णन वानव्यन्तर देवों के भवनों का जानना चाहिए । केवल इतनी विशेषता है कि ये पताका-मालाओं से व्याप्त हैं । यावत् सुरम्य हैं, मनः को प्रसन्न करने वाले हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं । भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के विमानावास कितने कहे गये हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से सात सौ नव्वै योजन ऊपर जाकर एक सौ दश योजन बाहल्य वाले तिरछे ज्योतिष्क-विषयक आकाशभाग में ज्योतिष्क देवों के असंख्यात विमानावास कहे गये हैं । वे अपने में से निकलती हुई और सर्व दिशाओं में फैलती हुई प्रभा से उज्जवल हैं, अनेक प्रकार के मणि और रत्नों की चित्रकारी से युक्त हैं, वायु से उड़ती हुई विजयवैजयन्ती पताकाओं से और छत्रातिछत्रों से युक्त हैं, गगनतल को स्पर्श करने वाले ऊंचे शिखर वाले हैं, उनकी जालियों के भीतर रत्न लगे हुए हैं । जैसे पंजर (प्रच्छादन) से तत्काल निकाली वस्तु सश्रीक-चमचमाती है वैसे ही वे सश्रीक हैं । मणि और सुवर्ण की स्तूपिकाओं से युक्त हैं, विकसित शतपत्रों एवं पुण्डरीकों (श्वेत कमलों) से, तिलकों से, रत्नों के अर्धचन्द्राकार चित्रों से व्याप्त हैं, भीतर और बाहर अत्यन्त चिकने हैं, तपाये हुए सुवर्ण के समान वालुकामयी प्रस्तटों या प्रस्तारों वाले हैं । सुखद स्पर्श वाले हैं, शोभायुक्त हैं, मन को प्रसन्न करने वाले और दर्शनीय हैं । भगवन् ! वैमानिक देवों के कितने आवास कहे गये हैं ? गौतम ! इसी रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारकाओं को उल्लंघन
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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