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________________ समवाय- प्र./२२० २४१ अंगरूप में विस्तार को प्राप्त, जगत् के जीवों के हितकारक भगवान् श्रुतज्ञान का संक्षेप से समवतार किया जाता है । इस समवायाङ्ग में नाना प्रकार के भेद-प्रभेद वाले जीव और अजीव पदार्थ वर्णित हैं । तथा विस्तार से अन्य भी बहुत प्रकार के विशेष तत्त्वों का, नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गणों के आहार, उच्छ्वास, लेश्या, आवास-संख्या, उनके आयाम - विष्कम्भ का प्रमाण, उपपात (जन्म) च्यवन (मरण) अवगाहना, उपधि, वेदना, विधान (भेद), उपयोग, योग, इन्द्रिय), कषाय, नाना प्रकार की जीव-योनियाँ, पर्वत-कूट आदि के विष्कम्भ (चौड़ाई) उत्सेध (ऊंचाई) परिरय ( परिधि ) के प्रमाण, मन्दर आदि महीधरों (पर्वतों) के विधि - (भेद) विशेष, कुलकरों, तीर्थंकरों, गणधरों, समस्त भरतक्षेत्र के स्वामी चक्रवर्तियों का, चक्रधरवासुदेवों और हलधरों (बलदेवों) का, क्षेत्रों का, निर्गमों को अर्थात् पूर्व-पूर्व क्षेत्रों से उत्तर के ( आगे के) क्षेत्रों के अधिक विस्तार का, तथा इसी प्रकार के अन्य भी पदार्थों का इस समवायाङ्ग में विस्तार से वर्णन किया गया है । समवायाङ्ग की वाचनाएं परीत हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियाँ संख्यात हैं, वेढ संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं, और नियुक्तियां संख्यात है । अंग की अपेक्षा यह चौथा अंग है, इसमें एक अध्ययन है, एक श्रुतस्कन्ध है, एक उद्देशन काल है, [एक समुद्देशन- काल है,] पद-गणना की अपेक्षा इसके एक लाख चवालीस हजार पद हैं । इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम (ज्ञान - प्रकार ) हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस, अनन्त स्थावर तथा शाश्वत, कृत (अनित्य), निबद्ध निकाचित जिन - प्रज्ञप्त भाव इस अंग में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं । इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है । इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु के स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है । यह चौथा समवायाङ्ग है । [२२१] व्याख्याप्रज्ञप्ति क्या है-इसमें क्या वर्णन है ? व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वारा स्वसमय का व्याख्यान किया जाता है, पर - समय का व्याख्यान किया जाता है, तथा स्वसमय परसमय का व्याख्यान किया जाता है । जीव व्याख्यात किये जाते हैं, अजीव व्याख्यात किये जाते हैं, तथा जीव और अजीव व्याख्यात किये जाते हैं । लोक व्याख्यात किया जाता है, अलोक व्याख्यात किया जाता है । तथा लोक और अलोक व्याख्यात किये जाते हैं । व्याख्याप्रज्ञप्ति में नाना प्रकार के देवों, नरेन्द्रों, राजर्षियों और अनेक प्रकार के संशयों में पड़े हुए जनों के द्वारा पूछे गये प्रश्नों का और जिनेन्द्र देव के द्वारा भाषित उत्तरों का वर्णन किया गया है । तथा द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल, पर्याय, प्रदेश- परिमाण, यथास्थित भाव, अनुगम, निक्षेप, नय, प्रमाण, सुनिपुण उपक्रमों के विविध प्रकारों के द्वारा प्रकट रूप से प्रकाशित करने वाले, लोकालोक के प्रकाशक, विस्तृत संसार - समुद्र से पार उतारने में समर्थ, इन्द्रों द्वारा संपूजित, भव्य जन प्रजा के, अथवा भव्य जनपदों के हृदयों को अभिनन्दित करने वाले, तमोरज का विध्वंसन करने वाले, सुदृष्ट (सुनिर्णीत) दीपक स्वरूप, ईहा, मति और बुद्धि को बढ़ाने वाले ऐसे अन्यून (पूरे ) छत्तीस हजार व्याकरणों (प्रश्नों के उत्तरों) को दिखाने से यह व्याख्याप्रज्ञत्ति सूत्रार्थ के अनेक प्रकारों का प्रकाशक है, शिष्यों का हित - कारक है और 2 16
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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