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________________ २४० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद इस अंग का अध्ययन करके अध्येता ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है । इस अंग में चरण (मूल गुणों) तथा करण (उत्तर गुणों) का कथन किया गया है, प्रज्ञापना और प्ररूपणा की गई है । उनका निदर्शन और उपदर्शन कराया गया है । यह सूत्रकृतांग का परिचय है । [२१७] स्थानाङ्ग क्या है इसमें क्या वर्णन है ? जिसमें जीवादि पदार्थ 'प्रतिपाद्य रूप से स्थान प्राप्त करते हैं. वह स्थानाङ्ग है । इस के द्वारा स्वसमय स्थापित-सिद्ध किये जाते हैं, पर-समय स्थापित किये जाते हैं, स्वसमयपरसमय स्थापित किये जाते हैं । जीव स्थापित किये जाते हैं, अजीव स्थापित किये जाते हैं, जीव-अजीव स्थापित किये जाते हैं । लोक स्थापित किया जाता है, अलोक स्थापित किया जाता है, और लोक-अलोक दोनों स्थापित किये जाते हैं । स्थापनाङ्ग मे जीव आदि पदार्थों के द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल और पर्यायों का निरूपण किया गया है । [२१८] तथा शैलों (पर्वतों) का गंगा आदि महानदियों का, समुद्रों, सूर्यों, भवनों, विमानों, आकरों, सामान्य नदियों, चक्रवर्ती की निधियों, एवं पुरुषों की अनेक जातियों का स्वरों के भेदों, गोत्रों और ज्योतिष्क देवों के संचार का वर्णन किया गया है । [२१९] तथा एक-एक प्रकार के पदार्थों का, दो-दो प्रकार के पदार्थों का यावत् दशदश प्रकार के पदार्थों का कथन किया गया है । जीवों का, पुद्गलों का तथा लोक में अवस्थित धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का भी प्ररूपण किया गया है । - स्थानाङ्गकी वाचनाएं परीत (सीमित) हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियाँ संख्यात हैं, वेढ (छन्दोविशेष) संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं, और संग्रहणियाँ संख्यात हैं । यह स्थानाङ्ग अंग की अपेक्षा तीसरा अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन हैं, इक्कीस उद्देशन-काल हैं, [इक्कीस समुद्देशन काल हैं |] पद-गणना की अपेक्षा इसमें बहत्तर हजार पद हैं । संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम (ज्ञान-प्रकार) हैं, अनन्त पर्याय हैं परीत त्रस हैं । अनन्त स्थावर हैं । द्रव्य-दृष्टि से सर्व भाव शाश्वत हैं, पर्याय-दृष्टि से अनित्य हैं, निबद्ध हैं, निकाचित (दृढ किये गये) हैं, जिन-प्रज्ञप्त हैं । इन सब भावों का इस अंग में कथन किया जाता है, प्रज्ञापन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है, निदर्शन किया जाता है और उपदर्शन किया जाता है । इस अंग का अध्येता आत्मा ज्ञाता हो जाता है, विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार चरण और करण प्ररूपणा के द्वारा वस्तु के स्वरूप का कथन प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है । यह तीसरे स्थानाङ्ग का परिचय है । [२२०] समवायाङ्ग क्या है ? इसमें क्या वर्णन है ? समवायाङ्ग में स्वसमय सूचित किये जाते हैं, पर-समय सूचित किये जाते हैं, और स्वसमय-पर-समय सूचित किये जाते हैं । जीव सूचित किये जाते हैं, अजीव सूचित किये जाते हैं, और जीव-अजीव सूचित किये जाते हैं । लोक सूचित किया जाता है, अलोक सूचित किया जाता है और लोक-अलोक सूचित किया जाता है ।। समवायाङ्ग के द्वारा एक, दो, तीन को आदि लेकर एक-एक स्थान की परिवृद्धि करते हुए शत, सहस्त्र और कोटाकोटी तक के कितने ही पदार्थों का और द्वादशाङ्ग गणिपिटक के पल्लवानों (पर्यायों के प्रमाण) का कथन किया जाता है । सौ तक के स्थानों का, तथा बारह
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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