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________________ समवाय-१३/२६ धूमप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति तेरह सागरोपम कही गई है । सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तेरह पल्योपम कही गई है । लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति तेरह सागरोपम है । वहां जो देव वज्र, सुवज्र, वज्रावर्त [वज्रप्रभा वज्रकान्त, वज्रवर्ण, वज्रलेश्य वज्ररूप, वज्रग वज्रसृष्ट, वज्रकूट, वज्रोत्तरावतंसक, वइर, वइरावर्त, वइरप्रभ, वइरकान्त, वइश्वर्ण, वइरलेश्य, वइररूप, वइस्श्रृंग, वइरसृष्ट, वइरकूट, वइरोत्तरावतंसक; लोक, लोकावर्त, लोकप्रभ, लोककान्त, लोकवर्ण, लोकलेश्य, लोकरूप, लोकश्रृंग, लोकसृष्ट, लोककूट और लोकोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवा की उत्कृष्ट स्थिति तेरह सागरोपम कही गई है । वे तेरह अर्धमासा के बाद आन-प्राण-उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं । उन देवों के तेरह हजार वर्ष के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है । कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तेरह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होग कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । ___ समवाय-१३ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (समवाय-१४) [२७] चौदह भूतग्राम (जीवसमास) कहे गये हैं । जैसे-सूक्ष्म अपर्याप्तक एकेन्द्रिय, सूक्ष्म पर्याप्त एकेन्द्रिय, बादर अपर्याप्तक एकेन्द्रिय, बादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, द्वीन्द्रिय पर्याप्त त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय असंज्ञी अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय असंज्ञी पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्तक और पंचेन्द्रियसंज्ञी पर्याप्तक । चौदह पूर्व कहे गये हैं जैसे[२८] उत्पाद पूर्व, अग्रायणीय पूर्व, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्ति प्रवाद, ज्ञानप्रवाद-पूर्व । [२९] सत्य प्रवाद-पूर्व, आत्मप्रवाद-पूर्व, कर्मप्रवाद-पूर्व, प्रत्याख्यानप्रवाद-पूर्व ।। [३०] विद्यानुवाद-पूर्व, अबन्ध्य-पूर्व, प्राणवाय-पूर्व, क्रियाविशाल-पूर्व तथा लोकबिन्दुसार-पूर्व । [३१] अग्रायणीय पूर्व के वस्तु नामक चौदह अर्थाधिकार कहे गये हैं । श्रमण भगवान् महावीर की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा चौदह हजार साधुओं की थी । कर्मों की विशुद्धि की गवेषणा करनेवाले उपायों की अपेक्षा चौदह जीवस्थान हैं । मिथ्यादृष्टि स्थान, सासादन सम्यग्दृष्टि स्थान, सम्यग्मिथ्यादृष्टि स्थान, अविरत सम्यग्दृष्टि स्थान, विरताविरत स्थान, प्रमत्तसंयत स्थान, अप्रमत्तसंयत स्थान, निवृत्तिबादर स्थान, अनिवृत्तिबादर स्थान, सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक और क्षपक स्थान, उपशान्तमोह स्थान, क्षीणमोह स्थान, सयोगिकेवली स्थान, और अयोगिकेवली स्थान | भरत और एरवत क्षेत्र की जीवाएं प्रत्येक चौदह हजार चार सौ एक योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग प्रमाण लम्बी कही गई हैं । प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के चौदह-चौदह रत्न होते हैं । जैसे-स्त्रीरत्न, सेनापतिरत्न,
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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