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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पण सपवाओ ५५ आघविजति से समासओ दुविहे पनते तं जहा- दुहविवागे चैव सुहविवागे चैव तत्थ णं दह दुहविवागाणि दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराई उज्जाणाई चेइयाई वनसंडाई रायाणो अम्मार्पियरो समौसरणाई धम्माचरिया धम्मकहाओ नगरगमणाई संसारपबंधे दुहपरंपराओ व आघविजति सेत्तं दुहविवागाणि से किं तं सुहविवागाणि सुहविबागेसु सुहविवागाणं नगराई [उज्जाणाई चेइयाई वनसंडाई रायाणो अम्मापिरो समोसरणाई धम्मायरिया | धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इटिविसेसा भोगपरिचाया पव्वज्जाओ सुवपरिग्गहा तवोवहाणाई परिबागा संलेहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाती पुण बोहिलाभो अंतकिरियाओ च आघविचंति दुहविवागेसु णं पाणाइबाब - अलियववणचोरिककरण - परदार मेहुण संसग्गयाए महतिव्वकसाय- इंदियध्वमाय-पावप्पओय-असुहज्झवसाण- संचियाणं कम्पाणं पावगाणं पाव - अनुभाग - फलविवागा निरयगति-तिरिक्खजोणि-बहुविह-बसण-सय-परंपरा-पवद्वाणं मणुयत्तेवि आगायाणं जहा पावकम्मसेसेणं पावगा होति फलविवागा वहबसणविणास- नासकण्णोद्वंगुट्ठकरचरणनहच्छेयणजिटभधेयणंअंजण कड गिदहण - गवचलण-मलणफालणउल्लंबण-सूललयालउडलाद्विभंजण-तउसीसम तत्ततेल्लकलकल अभिसिंचण- कुंभियाग- कंपण-थिरवंधण - वेह वज्झ कत्तण- पतिभयकर-करपलीवणादिदारुणामि दुक्खाणि अणोवमाणि बहुविविहपरंपराणुवद्धा णं मुघंति पावकम्मवल्लीए अवेचता हु नत्थि मोक्खी तवेण धिइ धणिय-वद्ध-कच्छेण सोहणं तस्स बाबि होजा एतोच सुहविबागेसु सील-संजम नियम-गुण- तवोवहाणेसू साहसु सुविहिएसु अणुकंपाSसवप्पओग-तिकाल-मइविसुद्ध - भतपाणाई पवतमणसा हिय- सुहनीसेस तिव्वपरिणामनिच्छिवमई पयचिकणं पओगमुद्धाई जह व निव्वतेंति उ बोहिलाभं जह व परितीकति नर- निरय-तिरिव सुरगतिमण-विपुलपरिचट्ट- अरति- भय-विसाय- सोक-मिच्छत्त-सेल- संकईअन्नाणतमंधकार-चिक्खिल्ल- सुदुत्तारं जरमरण- जोणि-संखुभिवचक्कवालं सोलसकसायसावय-पयंड-चंड अणाइयं अणवदग्गं संसारसागरमिणं जह य निबंधंति आउगं सुरगणेसु जह य अनुभवंति सुरगणविमाणसोक्खाणि अणोवमाणि ततो य कालंतरच्चुआणं इहेव नरलोगभागयाणं आउ-वउ-चण्ण-रूव-जाति- कुल जम्प - आरोग्ग-बुद्धि-मेहा-विसेसा मित्तजण - रावण-धण-धन्न-विभव-समिद्धिसार-समुदयविसेसा बहुविह कामभोगुब्भवाण सोक्खाण सुहविवागोरामेसु अनुवरयपरंपराणुवद्धा असुभाणं सुभाण चैव कम्माण भासिआ बहुविहा विवागाविवाम्प भगव्या जिणवरेणं संवेगकारणत्था अण्णेवि च एवमाइया बहुविहा वित्रेणं अत्थपरूवणचा आधविजति विवागसुअस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अनुओगदारा संखे जाओ पडिवत्तीओ संखेजा वेढा संखेजा सिलोगा संखेनाओ निजुत्तीओ संखेज्जाओ संग्रहणीओ से णं अंगट्टयाए एक्कारसमे अंगे वीसं अज्झयणा वीस उद्देसणकाला वीसं समुद्देसणकाला संखेजाई पयस्यसहस्साई पयगेणं संखेजाणि अक्खराणि [ अनंता गमा अनंता पचवा परिता तसा अनंता थावरा सासया कडा निवद्धा निकाइया जिणपत्रत्ता भावा आघविजति पत्रविजति परूविजति दंसिजति निदंसिजति उवदंसिजंति से एवं आया एवं नावा एवं विष्णाया एवं चरण-करण- परूवणया आघविजति [ पन्नविजति परुविज्जति दंसिजति निदंसिजति उवदंसिजति । सेत्तं विवागसुए | १४६/- 146 For Private And Personal Use Only
SR No.009730
Book TitleAgam 04 Samavao Angsutt 04 Moolam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year1996
Total Pages82
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 04, & agam_samvayang
File Size2 MB
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