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________________ श्री त्रिभंगीसार जी १४६ १४७ भजन-२३ उवन जिन , कुछ तो जरा विचारो। माया मोह में कहां भटक रहे,अपनी ओर निहारो॥ १. तीन लोक के नाथ स्वयं तुम , रत्नत्रय उर धारो। अनंत चतुष्य रूप तुम्हारा , जिनवर जू ने उचारो... सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम तुम, ज्ञान स्वभाव तुम्हारो। अरस अरूपी अस्पर्शी हो , शुद्ध ध्रुव उजियारो.. ३. पर पर्याय से सदा भिन्न हो,कर्म कलंक भी न्यारो। शुद्ध बुद्ध अविनाशी चेतन , केवलज्ञान निहारो... इस शरीर की खातिर तुमने, संयम नियम बिगाड़ो। मरकरके दुर्गति में जैहो , भोगो दुःख अपारो... ज्ञानानंद स्वभावी होकर , फिर रहे मारे मारो। निज सत्ता शक्ति को देखो,क्षण को खेल हैसारो... मुक्ति श्री निज घर में बैठी , बाहर लगो है तारो । निज स्वभाव में तुम आ जाओ,मच है जय जयकारो.. भजन-२४ हे साधक अपनी सुरत सम्हारो। मोह राग में अब मत भटको,संयम तप को धारो॥ १. निजानंद को अपने जगाओ, इस प्रमाद को मारो। देख लो अपना क्या है जग में, समता उर में धारो... विषय कषायों में मत उलझो, पर को मती निहारो । इस शरीर का पीछा छोड़ो, कौन है कहा तिहारो... निज सत्ता शक्ति को देखो, रत्नत्रय को सम्हारो । तुम तो हो भगवान आत्मा, क्यों हो रहे बेबारो... ज्ञानानंद स्वभाव तुम्हारा , सद्गुरु रहे पुकारो। चेतो जागो निज को देखो, पर पर्याय से न्यारो... आध्यात्मिक भजन भजन-२५ मरने है मरने है , इक रोज तो निश्चित मरने है। करने है करने है,खुद सोच लो अब का करने है। जैसा करोगे वैसा भरोगे , साथ न जावे पाई। धन वैभव सब पड़ा रहेगा,काम न आवे भाई॥ धरने है धरने है , अब साधु पद को धरने है..... आयु तक का सब नाता है,बाप बहिन और भाई। निकला हंस जलाई देही , कर दई पूरी सफाई ॥ परने है परने है , का अब भी दुर्गति परने है..... माया के चक्कर में मर रहे , सब संसारी प्राणी। देखत जानत तुम भी मर रहे , मूढ़ बने अज्ञानी । चरने है चरने है , का मल विष्ठा फिर चरने है..... वस्तु स्वरूप सामने है सब,सोचलो अब का करने है। माया मोह में ही मरने , या साधु पद को धरने है। तरने है तरने है , अब भव संसार से तरने है..... जितनी आयु शेष बची है, जो चाहो सो करलो। पर का तो कुछ कर नहीं सकते,संयमतप ही धरलो॥ भरने है भरने है , खुद कर्मों को फल भरने है..... ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम , ज्ञान ध्यान सब कर रहे । कैसे सब शुभ योग मिले हैं, क्यों प्रमाद में मर रहे। वरने है वरने है , अब मुक्ति श्री को वरने है..... आत्मा स्वयं शुद्ध आनंद कंद है ऐसी श्रद्धा सहित अनुभव वही पूज्य है वही धर्म है, जिनवाणी का सार है।
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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