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________________ श्री त्रिभंगीसार जी स्वभाव ही उसका धर्म है; किन्तु संसार अवस्था में वह चैतन्य स्वभाव तिरोहित होकर गति, इन्द्रिय और चौदह मार्गणाओं में चौदह गुणस्थान के द्वारा विभाजित होकर नाना रूप हो गया है । यद्यपि द्रव्य दृष्टि से वह एक ही है, इसी से भगवान जिनेन्द्र देव ने जो धर्मोपदेश दिया है वह व्यवहार और निश्चय से व्यवस्थापित है। जो साधु अपनी इन्द्रियों और मन के प्रसार को रोकता है तथा आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा का अनुभवन करके कृतकृत्य अवस्था को प्राप्त करता है उसको प्रथम जीवनमुक्ति, पश्चात् परम मुक्ति प्राप्त होती है। राग और द्वेष से की गई प्रवृत्ति और निवृत्ति से जीव को बन्ध होता है और तत्वज्ञान पूर्वक की गई उसी प्रवृत्ति और निवृत्ति से मोक्ष होता है । आत्म स्वरूप ही एक मात्र आश्रय करने योग्य है, निज स्वभाव के आश्रय और स्वरूप में रमणता से ही आस्रव बंध से मुक्ति होती है, वीतरागी जिनेन्द्र भगवंतों की देशना का यही सार है । ५. भाव सुद्ध, श्रद्धान, प्रमान तीन भाव गाथा - ५० भावए भाव सुद्धं च, परमानं स्वात्म चिंतनं । जिन उक्तं हृदयं सार्धं, त्रिभंगी दल पंडितं ॥ अन्वयार्थ - (भावए भाव सुद्धं च ) भाव से भाव की शुद्धि होती है (परमानं स्वात्म चिंतनं ) स्वात्म चिन्तन से भाव श्रुत ज्ञान प्रमाण होता है (जिन उक्तं हृदयं सार्धं) जिनेन्द्र कथित परमार्थ तत्व का हृदय में श्रद्धान होता है (त्रिभंगी दल पंडितं ) इन तीन भावों से कर्मों का क्षय होता है । विशेषार्थ - स्वात्मानुभव रूप शुद्ध भाव, शुद्धात्मा की भावना से होता है । भेदविज्ञान की बारम्बार भावना के अभ्यास से शुद्ध आत्मतत्व का लाभ होकर स्वानुभव होता है। उससे राग भाव विला जाता है, कर्मों का संवर होता है। इसी स्वानुभव रूप श्रुतज्ञान के द्वारा अविनाशी प्रकाश रूप निर्मल, उत्कृष्ट, निराकुल एक केवलज्ञान झलक जाता है । आत्मा निश्चय नय से परम शुद्ध पदार्थ है । द्रव्यकर्म, भावकर्म, नो कर्म से भिन्न है । आत्मा सर्व परद्रव्यों से, परभावों से, परपर्यायों से भिन्न है, सिद्ध के समान शुद्ध है, यही ज्ञान प्रमाण है, जिसको भाव श्रुतज्ञान कहते हैं। ९० ९१ गाथा - ५१ जिनवर कथित वाणी का स्वाध्याय करने से अपने शुद्धात्म स्वरूप का श्रद्धान हो जाता है, यही शुद्ध सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन के प्रताप से स्वात्मानुभव होता है । स्वात्मानुभव ही जिन कवित परमार्थ धर्म का प्रकाश है, इसी से कर्मों का संवर व पूर्व कर्म की निर्जरा होती है - यही भाव श्रुतज्ञान केवलज्ञान का कारण है । आत्मा को आत्मा के द्वारा पुण्य-पाप रूप शुभाशुभ योगों से रोककर दर्शन ज्ञान में स्थित होता हुआ और अन्य वस्तु की इच्छा से विरक्त होकर, जो आत्मा सर्वसंग से रहित निजात्मा को आत्मा के द्वारा ध्याता है, कर्म और अकर्म को नहीं ध्याता, चेतयिता होने से एकत्व का ही चिन्तवन करता है, विचारता है, अनुभव करता है। यह आत्मा, आत्मा का ध्याता, दर्शन ज्ञानमय हुआ अल्पकाल में ही कर्म से रहित आत्मा को प्राप्त करता है । आत्मा का जो भाव ज्ञान दर्शन रूप उपयोग को प्राप्त कर शुभाशुभ योगों की क्रिया से विरक्त होता है और नवीन कर्म के आसव को रोकता है वही संवर तत्व है। इस प्रकार भावशुद्ध, श्रद्धान, प्रमाण यह तीन भाव कर्मास्रव का निरोध करते हैं। इन भावों से साधक जीव को अपने अनेक गुणों की पर्यायें निर्मल होती हैं, खिलती हैं । सम्यक्दृष्टि जीव अपने स्वरूप को जानकर उसकी प्रतीति कर, स्वरूपाचरण कर ऐसा अनुभव करता है कि- “मैं तो चैतन्य मात्र ज्योति हूँ ध्रुवतत्व शुद्धात्मा हूँ, यह कोई भी भाव क्रिया पर्याय रूप मैं नहीं हूँ और न ही यह मेरे हैं। मैं तो टंकोत्कीर्ण अप्पा-ममल स्वभावी ज्ञायक मात्र हूँ । 33 ६. आत्मचिंतन, उपादेय, सास्वत : तीन भाव गाथा - ५१ चिंतनं चेतना रूपं, उपादेय सास्वतं धुवं । जिन उक्तं सुद्ध चैतन्यं, त्रिभंगी दल निरोधनं ॥ अन्वयार्थ - (चिंतनं चेतना रूपं ) चैतन्य स्वरूप का चिन्तन, आत्मचिंतन है (उपादेय सास्वतं ध्रुवं ) उपादेय, शाश्वत ध्रुव तत्व शुद्धात्मा है (जिन उक्तं सुद्ध चैतन्यं) जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि चैतन्य स्वरूप शुद्ध, त्रिकाली, शाश्वत ध्रुव पद है (त्रिभंगी दल निरोधनं ) यह तीन भाव सर्व कर्म समूह के निवारक हैं।
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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