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________________ श्री त्रिभंगीसार जी का सत्संग तथा ऐसे ही निर्ग्रन्थ- वीतरागी साधु होने की भावना करना; क्योंकि अपने स्वरूप की साधना से साधुपद प्रगट होता है। निश्चय से अपना अन्तरात्मा ही सद्गुरू है। ऐसे सद्गुरू के सत्संग और स्वरूप का चिंतन करने से आस्रव भाव का निरोध होता है। सच्चे शास्त्र- अपना शुद्ध स्वभाव ही धर्म है। ऐसे सत्स्वरूप को बताने वाले, अहिंसा का प्रतिपादन करने वाले सच्चे शास्त्र होते हैं। जिनका स्वाध्याय, चिन्तन, मनन करने से आत्म स्वरूप का बोध जागता है, संसार के दुःखों से छूटने के भाव होते हैं, इन भावों से कर्मास्रव का निरोध होता है। साधक जीव को भूमिकानुसार शुभाशुभ विकल्प आते ही हैं। इनसे बचने के लिये साधक को देव गुरू शास्त्र के स्वरूप का चिन्तन मनन करने से अपने आत्मस्वरूप का बोध जाग्रत होता है जिससे आम्रव भाव का निरोध होता है । प्रश्न- देव गुरू - शास्त्र (धर्म) के भाव, चिन्तन भी शुभ विकल्प हैं, तब इनसे आसव का निरोध कैसे होगा ? समाधान- चौथे गुणस्थान में उपादेय रूप शुद्ध भाव अल्प हैं तथा यह भाव पाँचवें छटवें गुणस्थान में विकसित होता जाता है और हेय रूप विकार चौथे गुणस्थान की अपेक्षा पाँचवें -छटवें गुणस्थान में मंद होता जाता है । जैसे-जैसे शुद्धता बढ़ती है वैसे-वैसे गुणस्थान क्रम भी आगे बढ़ता जाता है । गुणस्थान अनुसार स्वज्ञेय को ग्रहण करने की शक्ति भी विकसित होती जाती है । गुणस्थान अनुसार ही ज्ञान व उसी के अनुसार क्रिया होती है । शुद्ध निश्चय रूप शुद्धोपयोग में साधक के लिये शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव आत्मा ध्येय (ध्यान करने योग्य ) होता है । इस प्रकार शुद्ध ध्येय होने से, शुद्ध का अवलम्बन होने से, शुद्ध आत्मस्वरूप का अनुभव होने से शुद्धोपयोग सहित होता है, उसी को संवर कहते हैं। आस्रव निरोधन भाव संवर रूप यह शुद्धोपयोग संसार के कारण मिथ्यात्व राग आदि अशुद्ध पर्याय की तरह अशुद्ध नहीं होता, और न ही शुद्धोपयोग के फलस्वरूप केवलज्ञान लक्षण शुद्ध पर्याय की तरह शुद्ध ही होता है; किन्तु उन शुद्ध और अशुद्ध पर्यायों से विलक्षण एक तीसरी अवस्था कही जाती है जो शुद्धात्मा की अनुभूति रूप निश्चय रत्नत्रयात्मक होने से मोक्ष का कारण होती है, तथा यह एक देश व्यक्ति (प्रगटता) रूप और एकदेश निरावरण होती है; अत: जहाँ जितने अंश में विशुद्धि है उतने अंश में संवर होता है। ८४ गाथा-४७ ८५ २. व्यवहार दर्सन, न्यान, चारित्र : तीन भाव गाथा-४७ दर्सनं तत्व सर्धानं, न्यानं तत्वानि वेदनं । स्थिरं तत्व चारित्रं, त्रितियं सुद्धात्मा गुनं ॥ अन्वयार्थ - (दर्सनं तत्व सर्धानं) सात तत्वों का या आत्म तत्व का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है (न्यानं तत्वानि वेदनं ) तत्वों को अनुभवपूर्वक जानना सम्यग्ज्ञान है (स्थिरं तत्व चारित्रं) आत्मतत्व में स्थिर होना सम्यक्चारित्र है (त्रितियं सुद्धात्मा गुनं ) यह तीनों ही रत्नत्रय, शुद्धात्मा के गुण हैं । विशेषार्थ- जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष- इन सात तत्वों का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यक्दर्शन है। सात तत्वों के यथार्थ स्वरूप को जानना व्यवहार सम्यक्ज्ञान है । इनमें से बंध के कारणों से बचकर संवर व निर्जरा के कारणों में प्रवृत्ति करने के लिये साधु का महाव्रत रूप व ग्रहस्थ का अणुव्रत रूप आचरण पालन करना व्यवहार चारित्र है । मोक्ष का मार्ग या प्राप्ति का उपाय व्यवहार नय से तो सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र है किन्तु निश्चय नय से रत्नत्रयमयी स्वात्मा ही मोक्ष का मार्ग है । जिनेन्द्र भगवान के द्वारा अपने धर्मोपदेश में कहा गया है कि देव, गुरू, शास्त्रका श्रद्धान, पूजा-भक्ति आदि के साथ व्रताचरण करना पुण्य है; और मोह, क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम को धर्म कहते हैं, शास्त्रों में उपचार व्यवहार से पुण्य को धर्म शब्द से कहा गया है । धर्म का प्रारम्भ वस्तुत: सम्यग्दर्शन से होता है । सात तत्वों का यथार्थ श्रद्धान करके निज शुद्धात्मा ही इष्ट उपादेय है, इस प्रकार की रुचिपूर्वक अनुभूति का नाम सम्यग्दर्शन है । सम्यक्दृष्टि पुण्य और पाप दोनों को ही हेय मानता है फिर भी पुण्यबन्ध से बचता नहीं है । जीव की सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूप विशुद्धि को धर्म कहते हैं। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र रूप संक्लेश परिणाम को अधर्म कहते हैं। सम्यग्दर्शन के शंकादि दोष हैं। ज्ञान के संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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