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________________ श्री त्रिभंगीसार जी अनुराग करता है । जिसके परिणाम दया युक्त हैं और मन में क्रोधादि रूप कलुषता नहीं है उस जीव के पुण्य कर्म का आसव होता है । तीव्र मोह के उदय से होने वाली आहार, निद्रा, भयरूप संज्ञा में जीव अशुद्ध भाव तथा मिथ्यात्व भाव में मूर्च्छित रहता है, पूर्व कर्मबंध के उदय का भय लगा रहता है, जिससे निरंतर अशुभ कर्मास्रव होता है । इन्द्रियों में रसना इन्द्रिय, कर्मों में मोहनीय कर्म, व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत, गुप्तियों में मनोगुष्टि । यह चार बहुत साधना और अभ्यास से वश में होते हैं । रसना इन्द्रिय से आहार के भाव, मोहनीय कर्म से दुःख और मन से भय की उत्पत्ति होती है। मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले ममत्व परिणाम को मूर्च्छा कहते हैं। चेतन परिग्रह मनुष्य के मन को जैसा कष्ट देता है, भयभीत करता है वैसा कष्ट और भय अचेतन परिग्रह नहीं देता । अचेतन परिग्रह धन, वैभव, मकान, जमीन, जायदाद के साथ तो मनुष्य का केवल स्वामित्व सम्बन्ध रहता है; किन्तु चेतन परिग्रह भाई-बहिन, पिता-पुत्र, पति-पत्नि का सम्बंध अन्तरंग मोह के कारण अधिक कष्टदायक, भययुक्त होता है । संसार में स्त्री और धन का राग बहुत प्रबल है । स्त्री के त्यागी भी धन के राग से बच नहीं पाते । इस धन की तृष्णा के चक्र में पड़कर मनुष्य धर्म-कर्म भी भुला बैठता है और आवश्यकता नहीं होने पर भी धन के संचय में लगा रहता है। जैसे-जैसे धन प्राप्त होता है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। असली परिग्रह तो शरीर ही है, इससे भी जो ममत्व नहीं करता वही परम निर्ग्रथ है । शरीर ही बाह्य परिग्रह है और इन्द्रियों की विषयाभिलाषा अन्तरंग परिग्रह है । शरीर का ममत्व होने से ही आहार, निद्रा और भय के भाव होते हैं। इनको त्यागने पर ही क्षपक परमार्थ से निर्ग्रन्थ होते हैं । भेदज्ञान से दोनों को पृथक्-पृथक् निश्चय करके मन में होने वाले राग-द्वेष मूलक सभी विकल्पों को दूर करके, निर्विकल्प स्थिति में शुद्धात्मा की उपलब्धि या अनुभूति होती है। गृह त्याग किये बिना मोक्षमार्ग की निरन्तर आराधना संभव नहीं है; किंतु घर छोड़कर साधु बनने के पहले उसकी तैयारी, उससे भी अधिक आवश्यक है। यह तैयारी है संसार शरीर और भोगों से आन्तरिक विरक्ति । वह विरक्ति किसी लौकिक लाभ से प्रेरित या श्मशान वैराग्य जैसी क्षणिक नहीं होनी चाहिए। ७८ ७९ गाथा -४४ सात तत्वों के सम्यक् परिज्ञानपूर्वक आत्मतत्व की उपलब्धि रूप सम्यक्दृष्टि प्राप्त होनी चाहिये । बिना आत्मज्ञानके घर छोड़कर मुनि बनना उचित नहीं है । अन्तर्दृष्टि इतनी प्रबुद्ध होना चाहिये कि आत्महित या अहित करने वाले पदार्थों, भाव, निमित्तों को परखकर तत्काल हित में लग सकें और अहित से बच सकें, तब घर छोड़ना । कमाने या घरेलू परेशानियों के कारण घर न छोड़ें। एकमात्र पापकर्म बन्ध के भय से घर छोड़ें और छोड़कर पछताऐं नहीं । साधु मार्ग के कष्टों को सहन करने में समर्थ होना चाहिए। मायाचार, मिथ्यात्व और आगामी भोगों की भावना नहीं होना चाहिए, तभी मोक्षमार्ग की सही आराधना हो सकती है। प्रश्न- आत्मा का कर्मास्रव और बन्ध से कब और कैसे छुटकारा होता है ? समाधान- जीव और कर्मों के सम्बन्ध की परम्परा अनादि है । पूर्वबद्ध कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव राग-द्वेष रूप परिणमन स्वत: करता है । जीव के राग-द्वेष रूप परिणामों का निमित्त पाकर कार्माण वर्गणायें स्वयं ज्ञानावरणादि रूप से परिणमन करती हैं। इससे बचने के लिए कर्मजन्य रागादि भावों से आत्मा की भिन्नता को जानकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान और ज्ञान तथा रागादि रूप से परिणमन न करके राग और द्वेष की निवृत्ति रूप साम्यभाव को धारण करना चाहिए, इसी का नाम चारित्र है। ऐसा करने पर ही आत्मा से कर्मास्रव बन्ध का छुटकारा होता है । प्रश्न- इसमें बाह्य त्याग-संयम-तप आवश्यक हैं या नहीं ? समाधान- इष्ट विषयों से राग और अनिष्ट विषयों से द्वेष का त्याग किए बिना परिग्रह त्याग परिपूर्ण नहीं होता । राग-द्वेष का नाम प्रवृत्ति है और उनके अभाव का नाम निवृत्ति है । बाह्य पदार्थों का त्याग मूल वस्तु नहीं है, मूल वस्तु है राग-द्वेष का त्याग; किन्तु राग-द्वेष बाह्य पदार्थों को लेकर ही होते हैं; इसलिए राग-द्वेष का आलंबन होने से बाह्य पदार्थों को भी छोड़ना चाहिए । निश्चय से चारित्र ही धर्म है। मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम साम्य है और साम्यभाव ही चारित्र, धर्म है। इसी से कर्मास्रव बन्ध से छुटकारा होता है । नीचे की भूमिका अर्थात् ग्रहस्थ दशा में प्राणीरक्षा, सत्य भाषण, दी हुई वस्तु का ग्रहण, ब्रह्मचर्य और योग्य परिग्रह के स्वीकार में जो प्रवृत्ति होती है, उर की भूमिका
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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