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________________ श्री त्रिभंगीसार जी २०. लाज, भय, गारव: तीन भाव गाथा-२८ लाजं भयं हृदयं चिंते,गारव राग मोहितं । संमिक्तं सुद्ध तिक्तंति,मिथ्या माया त्रिभंगये।। अन्वयार्थ-(लाजं भयं हृदयं चिंते) जो जीव मन में लोकलाज की या किसी प्रकार के भय की चिन्ता करते हैं (गारव राग मोहितं) तथा अपने गौरव या अभिमान के राग में मोहित रहते हैं (संमिक्तं सुद्ध तिक्तंति) उनका सम्यक्त्व छूट जाता है अथवा कभी अपने शुद्ध स्वभाव को नहीं पाते हैं (मिथ्या माया त्रिभंगयं) वे मिथ्यादर्शन मायाचार में मग्न होकर इन तीन भावों में ग्रसित रहते हैं। विशेषार्थ- आस्रव भावों में लाज, भय, गारव भी संसार परिभ्रमण कराने वाले हैं। इन भावों के कारण जीव अपने आत्म कल्याण के मार्ग पर नहीं बढ़ पाता। लाज-"लोग क्या कहेंगे?" लोकलाज, शर्म यह सब पर की अपेक्षा सांसारिक व्यवहार के कारण होती है। इस लोक लाज में जीव करने योग्य, न करने योग्य कार्यों को भी करता है, यह लोकमूढता में भी फँसाती है, इसमें मायाचारी भी होती है। यह लोकलाज आत्मा के पतन का कारण होती है। जहाँ संसार में शुभ-अशुभ कार्य करना पड़ते हैं वहाँ धर्म मार्ग पर चलने में भी यह बड़ी बाधा है। संयम, तप करके साधु पद धारण करने में यह लाजभाव बड़ा बाधक कारण है। इससे मन सबल और आत्मा दुर्बल बना रहता है और भावों में दीनता-हीनता रहती है। भय-संसारी जीव को सात भय लगे रहते हैं-१. इसलोकभय, २. परलोकभय , ३. मरणभय ,४. वेदनाभय, ५. अरक्षाभय, ६. अगुप्तिभय, ७. अकस्मात् भय। हमेशा भयभीत बने रहने, डरते रहने से भावों में निकृष्टता आती है। धर्म मार्ग पर चलने में भयभीत रहना, ऐसा न हो जाए, अब क्या होगा ? आगे कैसा होगा ? कोई अशुभ कर्म का उदय न आ जावे, पराश्रय-पराधीनपने केभाव भय केकारण होते हैं। गारव-अभिमान, गौरव या मद को गारव कहते हैं। संसारी जीव आठ मद में फँसा रहता है-जातिमद, कुलमद, रूपमद, बलमद, धनमद, तपमद, विद्यामद, ऋद्धि मद । इनके कारण परिणामों में कठोरता और दुष्टता रहती है। अपना मान-सम्मान न होने पर दूसरों का अहित करता है, सब कार्यों में बाधा डालता है। संसारी या धार्मिक कार्य का भी विवेक नहीं रहता, मनमानी करता है। ४७ गाथा-२९ धर्म मार्ग पर चलने वाले साधक को भी यह गारव भाव बड़ा अनिष्टकारी है। अपनी प्रशंसा, प्रभावना, प्रसिद्धि नाम के लिए मायाचारी करना पड़ती है। शुभ-अशुभ का विवेक नहीं रहता है, जिसके कारण समाज, शिष्य, धनादि तथा धनवालों के आश्रित रहना पड़ता है। अपने शुद्धात्मा, शुद्धभावना की साधना आराधना नहीं होती, इस मिथ्या माया में जो रत रहता है उसे तीनों भावों से अशुभ पापासव होता है। पर की तरफ देखने पर, अपेक्षा रखने पर जरा सी भी चाह होगी तो लोकलाज, भय, गारव लगा रहेगा। इस तरह जो जीव लाज, भय-गारव के भावों में लगा रहता है वह आत्मानुभव रूप शुद्ध सम्यग्दर्शन को नहीं पा सकता है। मायाचार व मिथ्याभाव में रहकर पापास्रव करता है। २१. गम, अगम, प्रमान: तीन भाव गाथा-२९ गमस्य अगमं क्रित्वा, प्रमानं मिथ्या उच्यते । भवस्य भय दुव्यानं, भाजनं त्रिभंगी अस्तितं ॥ अन्वयार्थ-(गमस्य अगमं क्रित्वा) जो गम का और अगम का विचार करता रहता है अर्थात् जो वर्तमान में प्रत्यक्ष जानने में आता है वह गम्य है और जो वर्तमान में प्रत्यक्ष जानने में नहीं आता वह अगम्य है (प्रमानं मिथ्या उच्यते) जिससे जाना जावे, उस व्यक्ति, वस्तु, आगम को प्रमाण कहते हैं। ऐसे प्रमाण को मिथ्या कहकर भ्रमबुद्धि करता है (भवस्य भय दुष्यानं) वह संसार के दु:खों का, भय का (भाजनं त्रिभंगी अस्तितं ) पात्र होता है, इन तीनों भावों में रत रहने से। विशेषार्थ- जिनका जानना सुगम है, ऐसे इन्द्रिय गोचर स्थूल पदार्थ गम्य हैं। इन्द्रियों से अगोचर सूक्ष्म पदार्थ अगम्य हैं। अनुमान ज्ञान, आगम ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। इन तीनों के संबंध में मिथ्या बुद्धि, विपरीत धारणा, भ्रम होना, किसने देखा है ? कहाँ है ? ऐसा भाव रखना । स्वर्ग , नरक, परमात्मा केविषय में मिथ्या कल्पना करना और कहना, यह सब संसार के दु:खों का व भय का पात्र बनाने वाले भाव हैं। सर्वज्ञ वीतराग भगवान ने जैसा वस्तु स्वरूप बताया है वैसा सत्श्रद्धान करने की आवश्यकता है। जिससे यह यथार्थ निर्णय हो कि यह आत्मा अपने अज्ञानरूप मोहरागादिभावों से पाप-पुण्य रूप कर्म बांधता है तथा आप ही अपने ज्ञान स्वभाव रूप शुद्ध भावों
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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