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________________ गाथा-११,१२ श्री त्रिभंगीसार जी २० अन्वयार्थ-(क्रितं असुद्ध कर्मस्य) अशुद्ध अर्थात् शुभाशुभ कर्म को करना (कारितं तस्य उच्यते) अशुद्ध कार्य को दूसरे से कराना कारित है (अनुमति तस्य उत्पाद्यंते) अशुद्ध कार्य में सम्मति देना या सराहना करना अनुमोदना है (त्रिभंगी दल उच्यते) इसको आस्रव का त्रिभंगी समूह कहा जाता है। विशेषार्थ-शुद्धोपयोग में रमण करना ही आत्मा का स्वहित है, संवर का कारण है। इसके विपरीत अशुद्धोपयोग है, चाहे शुभ हो या अशुभ हो इसी से कर्मास्रव बन्ध होता है। क्रोध, मान, माया, लोभ के वशीभूत होकर यह जीव बहुत सारे कार्यों को स्वयं करता है, दूसरों से करवाता है तथा दूसरों के द्वारा किए गए कार्यों की प्रशंसा करते हुए सम्मति देता है। तीनों प्रकार से कर्मों का आश्रव होता है। यह नहीं समझना चाहिए कि कोई कार्य स्वयं करने से अधिक बन्ध होगा और करवाने व अनुमोदना करने से कम बन्ध होगा, ऐसा कोई नियम नहीं है। कृत,कारित,अनुमोदना में जहाँ कषाय भाव अधिक होगा वहाँ अधिक आस्रव तथा कषाय भाव कम होने पर कम आम्रव होगा अत: कषाय की तीव्रता, मंदता पर कर्मास्रव की तीव्रता मंदता निर्भर है। ___एक राजा स्वयं राजमहल में बैठकर युद्ध की आज्ञा देता है। राजा स्वयं युद्ध नहीं करता किन्तु उसकी आज्ञा से ही युद्ध हो रहा है इसलिए वह युद्ध करने वालों से अधिक पाप का बन्ध करेगा। दूसरी तरफयुद्ध करने वाले यदि यह भाव रखें कि हमारी स्वयं की इच्छा इस युद्ध को करने की नहीं थी किन्तु राजाज्ञा का पालन करना पड़ रहा है, तो करने वाले योद्धाओं को राजा की अपेक्षा कम बन्ध होगा। तीसरी तरफ एक साधारण मनुष्य इस युद्ध की बात सुनकर बड़ा ही रंजायमान होता है तो युद्ध कराने वाले राजा व युद्ध करने वाले सैनिकों से ज्यादा कषाय की तीव्रता होने के कारण वह अधिक पाप का बन्ध करेगा। __हिंसा करने वाला, कराने वाला और सम्मति देने वाला तीनों हिंसक हैं। यदि तीनों की कषाय समान होगी तो समान बन्ध व कम या अधिक होगी तो कम या अधिक बन्ध होगा; इसलिए अशुभ कार्यों को न तो करना चाहिए, न करवाना चाहिए और न ही उनकी सराहना करना चाहिए। इसी प्रकार शुभ कार्यों को न तो करना चाहिए,न करवाना चाहिए और न ही उनकी अनुमोदना करना चाहिए तब ही कर्मास्रव से बचा जा सकता है। जहाँ कृत, कारित व अनुमति का कोई विकल्प नहीं है केवल निर्विकल्प स्वानुभव है वहाँ आसव का अभाव है, अथवा गुणस्थान अपेक्षा अल्पबन्ध है। “मैंकृत, कारित, अनुमोदना से मन-वचन-काय केद्वारा सम्पादित भूत भविष्य-वर्तमान सम्बन्धी सर्व कर्मों को त्याग कर अर्थात् सबसे नाता तोड़कर कर्म करने के विकल्प से रहित परम शुद्ध चैतन्य स्वभाव का आलम्बन लेता हूँ"यही ज्ञानी का कर्त्तव्य है। प्रश्न -शुभ-अशुभ दोनों कर्मों का कृत-कारित-अनुमति से त्याग का अभिप्राय क्या है ? अशुभ तो हेय है परंतु शुभ तो करना चाहिए? समाधान - हिंसादि अशुभ कर्म पापासव हैं, अहिंसादि शुभ कर्म पुण्यासव हैं किन्तु दोनों ही आसव होने से बन्ध के कारण हैं, अत: उनमें उपादेयत्व मानना ही मिथ्यादर्शन है। यह अज्ञानमय अध्यावसान ही बन्ध का कारण है कि मैं किसी को जिलाता हूँ, सुखी करता हूँ ऐसे शुभ अहंकार से भरा हुआ वह शुभ अध्यवसाय है और मैं मारता हूँ, दु:खी करता हूँ ऐसे अशुभ अहंकार से भरा हुआ वह अशुभ अध्यवसाय है। अहंकार रूप मिथ्याभाव दोनों में है अत: यह नहीं मानना चाहिए कि पुण्य का कारण दूसरा है और पाप का कारण कोई अन्य है। अज्ञान मय अध्यावसान ही दोनों का कारण है इसलिए दोनों हेय हैं। अध्यावसान के निषेध के लिए बाह्य वस्तु क्रिया आदि का निषेध किया जाता है। अध्यावसान को बाह्य वस्तु आश्रयभूत है क्योंकि बाह्यवस्तु का आश्रय किये बिना अध्यावसान उत्पन्न नहीं होता। अध्यावसान ही कर्मबन्ध का कारण है, अज्ञान दशा में जीव पर पदार्थों का आश्रय करके निरन्तर कर्मों का आस्रव बन्ध करता रहता है। स्वाश्रय ही कर्मबन्ध से छूटने का उपाय है। ..कुमति, कुसुति, कुअवधि: तीन भाव गाथा-११-१२ कुन्यानं त्रिविधि प्रोक्तं, जिहवा अग्रेन तिस्टते। छाया त्रि उवंकारं, मिथ्या दिस्टि तत्परा ॥ कुमतिं क्रित्वा मिथ्यात्वं, कुश्रुतं तस्य पस्यते। कुअवधि तस्य दिस्टंते, मिथ्या माया विमोहितं ॥ अन्नवार्य-(कुन्यानं त्रिविधि प्रोक्तं ) कुज्ञान तीन प्रकार का कहा गया है (जिह्वा अग्रेन
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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