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________________ १४ १५ गाथा-८ श्री त्रिभंगीसार जी सम्यग्दर्शन की भावना आस्रव निरोधक है। गाथा-७ त्रिभंगी निरोधनं क्रित्वा, संमिक्त सुद्ध भावना। भव्यात्मा चेतना रूपं, संमिक् दर्सनमुत्तमं ॥ अन्वयार्थ- (त्रिभंगी निरोधनं क्रित्वा) कर्मासव की त्रिभंगी का निरोध करने के लिए (संमिक्त सुद्ध भावना ) शुद्ध सम्यग्दर्शन की भावना करना चाहिए (भव्यात्मा चेतना रूपं) भव्यजीव को अपने चैतन्य स्वरूप की अनुभूति होना (संमिक् दर्सनमुत्तमं) यही उत्तम या निश्चय सम्यग्दर्शन है जिससे कर्मास्रव का निरोध होता है। विशेषार्थ- मिथ्यादर्शन सहित सभी भाव संसार के कारण कर्मबन्ध के कारक हैं, इसलिए मिथ्यात्व सहित सर्व भावों का निरोध करके सम्यग्दर्शन की भावना करना चाहिए। जहाँ निज शुद्धात्मा का अनुभव हुआ वही निश्चय या उत्तम सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन का होना ही कर्मासव के निरोध का मूल है। पुण्य-पाप रहित निज शुद्धात्मा, भूतार्थ ज्ञायक स्वभाव की अन्तर्दृष्टि होने पर स्वानुभूति प्रगट होती है, यही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है । आत्मा को चेतना गुणमय बतलाया है क्योंकि ज्ञान की पर्याय का अंश प्रगट है अत: चेतना गुणमय त्रिकाल है । आनंद का अंश तो तब प्रगट हो जब स्वभाव का आश्रय हो, परन्तु चेतना की वर्तमान पर्याय तो अज्ञानी का भी विकसित अंश है। अन्तर दृष्टि डालते ही चेतना स्वभाव, अनन्त अपरिमित स्वभाव दिखता है यही सम्यग्दर्शन, कर्मासव का निरोधक है। ___ स्व- पर का श्रद्धान होने पर अपने को पर से भिन्न जाने तो स्वयं के आश्रय से संवर-निर्जरारूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का उदय होता है तथा पर द्रव्यों को अपने से भिन्न रूप श्रद्धान होने पर, पर के लक्ष्य से होने वाले पुण्य- पाप व आसव बंध को छोड़ने का श्रद्धान होता है। स्वयं को पर से भिन्न जानने पर निज हितार्थप्रवर्तन होता है तथा पर को अपने से भिन्न जानने पर उनके प्रति उदासीनता होती है और रागादिक छोड़ने का श्रद्धान ज्ञान होता है। इस प्रकार सामान्य रूप से जीव-अजीव दोनों का स्वरूप जानकर स्व की अनुभूति से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अखण्ड द्रव्य ध्रुव स्वभाव और पर्याय दोनों का ज्ञान रहते हुए भी अखडधुव स्वभाव की ओर लक्ष्य रखना, उपयोग का प्रवाह अखण्ड द्रव्य की ओर ले जाना अन्तर में समभाव को प्रगट करता है। स्वाश्रय बाराबंध का अभाव करते हुए जो निर्मल पर्याय प्रगट हो उसे धर्म या मोक्षमार्ग कहते हैं। ____अनादि-अनंत निज शुद्ध चैतन्य स्वरूप है, ऐसा स्व-सम्मुख आराधन करना ही कर्मास्रव के निरोध का सच्चा उपाय है। प्रश्न-इतना सब जानते हुए भी कर्मासव क्यों होता है? समाधान-इसके समाधान में प्रथम अध्याय में ३६ त्रिभंग द्वारा कर्मास्रव के कारण बताये हैं जिनमें जुड़ने पर, उन भावों में बहने पर कर्मासव होता है। प्रथम अध्याय त्रिभंगी प्रवेस भाव १. सुभ, असुभ, मिस:तीन भाव गाथा-८ सुहस्य भावनं क्रित्वा, असुहं भाव तिस्टते। मिस्र भावंच मिथ्यात्वं, त्रिभंगी दल संजुत्तं ॥ अन्नपार्थ-(सुहस्य भावनं क्रित्वा) शुभ की भावना करने से शुभ भाव पुण्य बन्ध होता है (असुहं भाव तिस्टते) अशुभ भाव में ठहरने से अशुभ भाव पाप बन्ध होता है (मिस्र भावं च मिथ्यात्वं) मिथ्यात्व व सम्यक्त्व से मिला हुआ मिश्र भाव होता है (त्रिभंगी दल संजुत्तं) ऐसे तीन प्रकार के भाव कासव के कारण हैं। विशेषार्थ-शुभ-अशुभ और मिश्र यह तीन भाव कर्मास्रव के कारण हैं । इन भावों द्वारा आत्मप्रदेशों का सकम्प होना ही आसव है। योग (आत्मप्रदेशों के परिस्पंदन ) में शुभ या अशुभ ऐसा भेद नहीं है; किन्तु आचरण रूप उपयोग में (चारित्र गुण की पर्याय में ) शुभोपयोग और अशुभोपयोग ऐसा भेद होता है। सम्यक्त्व पूर्वक जो मंद कषाय रूप भाव होते हैं उनको शुभ भाव कहते हैं, वे शुद्धात्मा की भावना सहित हैं, शुद्ध स्वरूप में रुचि रूप हैं, वेभाव यद्यपि पुण्य बंध के कारक हैं तथापि मोक्षमार्ग में साधक न होकर बाधक हैं। मिथ्यादृष्टि के भी मन्दकषाय रूप शुभ भाव होते हैं वे इन शुभ भावों से इतना पुण्य बांधते हैं कि द्रव्यलिंगी मुनि नव ग्रैवेयक तक जाकर अहमिन्द्र हो जाते हैं तथापि वह पुन: साधारण मनुष्य होकर भव भ्रमणकारी भावों में फँस जाते हैं इसलिए वह वास्तव में अशुभ भाव ही हैं।
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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