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________________ कृत-कारित-अनुमोदना, मन-वचन-काय, क्रोध-मान-माया-लोभ, ३ x ३ x ३४१ - १०८ बताये हैं। ५७ आस्रव भाव और ५७ संवर भाव भी स्पष्ट किये हैं। आगम को अनुभव से सिद्ध करने वाला ही ज्ञानी होता है। साधक के जीवन में यह किस रूप में कैसे होते हैं ? सद्गुरू ने इसके ३६ त्रिभंग करके बताए हैं। इन १०८ प्रकार से कर्मासव होकर दुर्गति में जाना पड़ता है तथा ३६ त्रिभंग संवर रूप भाव बताए हैं जिनसे कर्मास्रव का निरोध होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है। ज्ञान का मार्ग अन्तरशोधन का है। व्यवहार आचरण तो तत्समय की योग्यता, भूमिका, पर्याय की पात्रतानुसार स्वयमेव होता है। इसमें स्वच्छंदता न हो इसके लिए यह त्रिभंगीसार की रचना की गई है। निश्चयाभासी, व्यवहाराभासी, उभयाभासी, इन तीनों से बचकर जो स्वानुभूति पूर्वक अपना मार्ग शोधन करता है, वह मुक्ति को प्राप्त करता है। कर्मासव का मूल कारण आत्म प्रदेशों का सकंप-परिस्पंदन रूप होना है, जिसे योग व क्रिया कहते हैं। इसमें मन-वचन-काय का निमित्त सहकारीपना है जिसके पन्द्रह भेद होते हैं। यह मन-वचन-काय के निमित्त से आत्म प्रदेशों का परिस्पंदन रूप सकंप होना कर्मासव है और सकषाय रूप होना बन्ध है जो दसवें गुणस्थान तक होता है; अत: अपने को अबन्ध, अभोक्ता, निरासव मानने वाले ज्ञानी को भी सावधान रहने की आवश्यकता है। जब तक कर्मासव होगा, मोक्ष नहीं हो सकता, यही जैन दर्शन में महावीर का मार्ग है। जागरण गीत जागो हे भगवान आत्मा, जागो हे भगवान ।। मोह नींद में क्यों सो रहे हो । अपनी सत्ता क्यों खो रहे हो । तुम हो सिद्ध समान आत्मा, जागो हे भगवान ॥१॥ नर भव में यह मौका मिला है। सब शुभ योग सौभाग्य खिला है। क्यों हो रहे हैरान आत्मा, जागो हे भगवान ॥२॥ इस शरीर से तुम हो न्यारे । चेतन अनन्त चतुष्टय धारे ॥ तोड़ो मोह अज्ञान आत्मा, जागो हे भगवान ।।३।। पर के पीछे तुम मर रहे हो । पाप परिग्रह सब कर रहे हो । भुगतो नरक निदान आत्मा, जागो हे भगवान ॥४॥ तुम हो शुद्ध बुद्ध अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखराशी ॥ कर लो भेद विज्ञान आत्मा, जागो हे भगवान ।।५।। आयु तक का सब नाता है । मोह यह तुमको भरमाता है । देख लोसब जग छान आत्मा, जागो हेभगवान॥६॥ कर्म प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करहिं सो तस फल चाखा। करोधरम पुण्य दान आत्मा, जागो हे भगवान ॥७॥ तारण तरण हैं तुम्हें जगा रहे । मुक्ति मार्ग पर तुम्हें लगा रहे ॥ पाओ पद निर्वाण आत्मा, जागो हे भगवान ॥८॥ ज्ञानानन्द बरेली दिनांक १.७.१९९२ शुद्धभाव से कर्मासव नहीं होता है। सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र रत्नत्रय धर्म, आसव बंध का कारण नहीं है यह भाव तो संवर निर्जरा काही उपाय है; अतएव रत्नत्रय धर्म की भावना करके राग-द्वेष, मोह का त्याग करना चाहिए, यही आत्म कल्याण का सोपान है।
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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