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________________ श्री आवकाचार जी जिनेन्द्र परमात्मा ने तो अपना इष्ट निज शुद्धात्मा ही कहा है। अपना चैतन्य लक्षण शुद्ध स्वभाव ही धर्म कहा है और धर्म तो श्रद्धान अनुभूति का विषय है। जो स्वयं में स्वयं को स्वयं से होता है। इसी बात को नेमिचन्द्राचार्य ने द्रव्य संग्रह में कहा है सम्महंसण णाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे । ववहारा णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा ॥ ३९ ॥ रणतयं ण वह अप्पार्ण मुयन्तु अण्णदवियन्हि । ह्या तत्तिय मइओ होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा ॥ ४० ॥ व्यवहार नय से सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों के समुदाय को मोक्ष का कारण जानो और निश्चय से सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों स्वरूप जो निज आत्मा है वही मोक्ष का कारण है। निज शुद्धात्मा को छोड़कर अन्य अचेतन द्रव्य में रत्नत्रय नहीं रहता है। रत्नत्रय अर्थात् सुख शान्ति आनंद । इस कारण रत्नत्रय मय आत्मा को ही निश्चय से मोक्ष का कारण जानो यही सत्य धर्म है। जिनेन्द्र के वचनों का लोप करना और अपनी मनमानी करना यह चोरी ही है, महान पाप है। जिस धर्मरत्न से आत्म कल्याण होता है उसको इसने चुरा लिया, छिपा लिया अधर्म में फंस गया और धर्म का चोर बन गया। YAAN YANA GANART YEAR. महाव्रती साधु होकर परिग्रह रखना, रुपया पैसा रखना, खेती कराना, लेन-देन करना, वस्त्रादि रखना, पालकी आदि पर चढ़ना यह सब क्रिया मुनिधर्म को लोप करने वाली है, ऐसी क्रियाओं को करते हुए अपने को साधु पद में कहना, मुनिधर्म को लोप करके धर्म की चोरी करना है। इसी प्रकार श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं में जो-जो आचरण जिस-जिस प्रतिमा योग्य है उसको भले प्रकार न पालकर और का और पालना व अपने को व्रती श्रावक मानना, धर्मरत्न को चुराना अर्थात् अपना आत्मघात करना है; क्योंकि सौभाग्य से ऐसा शुभयोग मिला और उसे भी अज्ञान मिथ्यात्व अधर्म और कुगुरुओं के जाल में फंसकर कुदेव - अदेवादि की पूजा भक्ति में ही गंवा दिया अपना आत्महित नहीं किया, सत्य वस्तु स्वरूप धर्म को नहीं जाना तो फिर इस मनुष्य भव को पाने का लाभ ही क्या मिला ? यहाँ कोई प्रश्न करे कि हम सत्य वस्तु स्वरूप समझना और सत्य धर्म को उपलब्ध करना चाहते हैं और इसीलिये यह बाह्य में नियम-संयम व्रतादि पालते हैं ७६ गाथा - १०६ फिर इसमें भूल कहाँ है जो हम भटक जाते हैं या सत्य धर्म निज शुद्धात्मानुभूति नहीं कर पाते इसका कारण क्या है ? इसका समाधान करते हैं कि इसमें हमारी मानसिक अस्थिरता, धर्म के संबंध में उतावलीपन करना है, जबकि यह हमारे जीवन का विशेष महत्वपूर्ण विषय है। धर्म के निर्णय पर ही हमारा वर्तमान जीवन और भविष्य आधारित है। इसके लिये हमें साम्प्रदायिक जाति-पांति के बंधन को तोड़ना होगा, विवेक बुद्धि से काम लेना होगा, दृढ़ता और गंभीरता आवश्यक है। जैसे- हम किसी वस्तु को खरीदना चाहते हैं, बाजार जाते हैं तो दस दुकान पर तपास कर अच्छा और सही मूल्य देखकर खरीदते हैं। वहाँ जाति-पांति का विचार नहीं करते और न इस बंधन में रहते कि इसी दुकान से लेंगे चाहे जैसे मिले। उधार वाला तो बंधा होता है, जैसी जो कुछ मिले वह मजबूर है; परंतु नगद वाला बंधा नहीं होता, हमें भी मनुष्य भव बुद्धि विवेक मिला है इसमें भी इन साम्प्रदायिक बन्धनों में बंधे रहे तो सत्य वस्तु स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकते। यह तो हमारे विवेक बुद्धि और पुरुषार्थ की बात है कि सत्य की खोज करें, ज्ञानी सद्गुरुओं की खोज करें, सत्संग करें और स्वयं के विवेक से सत्य को उपलब्ध करें। यहाँ एक बात का और विशेष ध्यान रखना है कि निज शुद्धात्मानुभूति कब होती है, सम्यक्दर्शन कब और कैसे होता है, इसके विकल्प में न फंसें, वह तो हमारी पात्रता काललब्धि आने पर स्वयमेव होगा लेकिन सत्य वस्तु स्वरूप को समझ तो लेवें कि वास्तव में सत्यधर्म क्या है ? क्योंकि जब मान्यता ही विपरीत होगी, आचरण ही उल्टा होगा तो सत्य की उपलब्धि भी नहीं होगी। बाजार में दो रुपये का घड़ा ठोक बजाकर देखकर लेते हैं और धर्म के सम्बन्ध में कोई विवेक नहीं रखते हैं। जो वंश परम्परा या साम्प्रदायिक आचरण चल रहा है उसे ही धर्म मानकर करते रहते हैं, यही तो सबसे बड़ा धोखा है। धर्म के लिये बड़ी जागरूकता हिम्मत और विवेक की आवश्यकता है। अनेकों ज्ञानी महापुरुषों ने इस सत्य धर्म को अपना जीवन समर्पित करके स्वयं का कल्याण करते हुए हमारा मार्गदर्शन किया। हम भी विवेक बुद्धि से काम लें, समझने की कोशिश करें, चाहे जिसकी बातों में न लगें, तो सब सहज में सुलभ हो सकता है। यहाँ विशेष महत्वपूर्ण बात जो निर्णय करने की है वह यह है कि अशुभ भाव और अशुभ क्रिया संसारी आरंभ, परिग्रह, विषयादि, यह सब पाप अशुभ
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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